Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 512
________________ ... सन्माल-सब्सना [ ११ मलद्वारकी भाषामें दिया है और इसीसे सिद्धसेनके लिये उसका स्वतन्त्र उल्लेख प्राचीनसाहित्यमें प्रायः देखनेको नहीं मिलता। श्वेताम्बरसाहित्यका जो एक उदाहरण ऊपर दिया गया है वह रबशेखरसूरिकृत गुरुगुणषट् त्रिशनपत्रिंशिकाकी स्वोपावृत्तिका एकवाक्य होनेके कारण ५०० वर्षसे अधिक पुराना मालूम नहीं होता और इसलिये वह सिखसेनकी दिवाकररूपमें बहुत बादकी प्रसिद्धिसे सम्बन्ध रखता है। आजकल तो सिद्धसेनके लिये 'दिवाकर' नामके प्रयोगकी बाढ़-सी रही है परन्तु अतिप्राचीन कालमे वैसा कुछ भी मालूम नही होता। यहॉपर एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि उक्त श्वेताम्बर प्रबन्धों तथा पट्टावलियोंमें सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीके महाकालमन्दिरमें लिङ्गस्फोटनादि-सम्बन्धिनी जिस घटनाका उल्लेख मिलता है उसका वह उल्लेख दिगम्बर सम्प्रदायमें भी पाया जाता है, जैसा कि सेनगणकी पट्रावलीके निम्न बाक्पसे प्रकट है: “(स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकाल संस्थापन-महाकाललिङ्गमहीधर-वाग्वजदण्डविष्ट्याविष्कृत श्रीपार्वतीर्थेश्वर प्रतिद्वन्द-श्रीसिद्धसेनभट्टारकाएपम् ॥१४॥" ऐसी स्थितिम द्वात्रिशिकाांके कर्ता सिद्धसेनके विषयमे भी सहज अथवा निश्चितरूपसे यह नहीं कहा जा मकना कि वे एकान्ततः श्वेताम्बर सम्प्रदायके थे सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसनकी तो बात ही जुदा है। परन्तु सन्मतिकी प्रस्तावनामे पं. सुग्यलालजी और पण्डिन बेचग्दाम ने उन्हें एकान्ततः श्वेताम्बर सम्प्रदायका श्राचाय प्रतिपादित किया है-लिखा है कि वे श्वेताम्बर थे, दिगम्बर नहीं' (पृ० १८४)। परन्तु इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई समथं कारण नहीं बतलाया. कारणरुपमे केवल इतना ही निर्देश किया है कि 'महावीरके गृहस्थाश्रम तथा चमरन्द्रक शरणागमनकी बात मिद्धमेनने वर्णन की है जो दिगम्बरपरम्परामे मान्य नहीं किन्तु श्वेताम्बर अागमाके द्वारा निर्विवादरूपसे मान्य है और इसके लिये फुट. नोटमे ५वी द्वात्रिशिकाके छठे और दृमर्ग द्वात्रिंशिकाक तीसरे पद्यको देखनेकी प्रेरणा की है, जो निम्न प्रकार है: "अनेकजन्मान्तरभग्नमानः स्मरी यशोदाप्रिय यत्पुरस्ते । चचार निहींकशरस्तमर्थ त्वमेव विद्यासु नयज्ञ कोऽन्यः ॥५.६॥" "कृत्वा नवं सुरवधूभयरोमहर्ष देत्याधिपः शतमुख-भ्रकुर्टीवितानः । त्वत्पादशान्तिगृहसंश्रयलन्धचेता लज्जातनुध ति हरेः कुलिशं चकार ॥२-३॥" इनमेंसे प्रथम पद्यमें लिखा है कि 'हं यशोदाप्रिय ! दुसरे अनेक जन्मोंमें भममान हुश्रा कामदेव निर्लज्जतारूपी बाणको लिय हुए जो आपके सामने कुछ चला है उसके अर्थको श्राप ही नयके ज्ञाता जानत है, दृमरा और कौन जान सकता है अर्थात यशोदाके साथ आपके वैवाहिक सम्बन्ध अथवा रहस्यका सममनेक लिय हम असमर्थ है। दूसरे पद्यमें देवाऽसुर-संग्रामके रूपमें एक घटनाका उल्लेख है, 'जिममें दैत्याधिप असुरेन्द्रने सुरवधुओंको भयभीतकर उनके रोंगटे खड़े कर दिय। इससे इन्द्रका भ्रकुटी तन गई और उसने उसपर वन छोड़ा, असुरेन्द्रने भागकर वीरभगवानके चरणोंका आश्रय लिया जो कि शान्तिके धाम है और उनके प्रभावसे वह इन्द्रके बनको लज्जासे क्षीणद्युति करनेमें समर्थ हुआ। अलंकृत भाषामें लिखी गई इन दोनों पौराणिक घटनाओंका श्वेताम्बर मिद्धान्तोंके साथ काई खास सम्बन्ध नहीं है और इमलिय इनके इस रूपमें उल्लेम्न मात्रपरस यह नहीं कहा जा सकता कि इन पद्योके लेखक मिसेन वास्तवमें यशोदाके माथ भ. महावीरका विवाह होना और असुरेन्द्र (चमरेन्द्र) का सेना मजाकर तथा अपना भयंकर रूप बनाकर युद्धक लिय स्वर्गमें जाना आदि मानने थे, और इमलिय श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्राचार्य थ;

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