Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 516
________________ किरण ११ सम्मति-सिशसेना [४६५ "प्रसिद्ध इत्यादि, स्वलक्षणैकान्तस्य साधने सिद्धावनीक्रियमानायो सों हेतुः सिक्सेनस्य भगवतोऽसिद्धः। कयमिति चेदुच्यते ..." | ततः सूक्तमेकान्तसाधने हेतुरसिद्धः सिद्धसेनस्येति । कश्चित्स्वयूथ्योऽत्राह-सिद्धसेनेन कचित्तस्याऽसिद्धस्याऽवचनादयुक्तमेतदिति । नेन कदाचिदेतत् पतं-'जे संतवायदोसे सक्कोल्लया भणंति संखाणं । संखा य असव्वाए तेसिं सब्वे वि ते सथा।" इन्ही सब बाताको लक्ष्यमें रखकर प्रसिद्ध श्वताम्बर विद्वान स्वर्गीय श्रीमोहनलाल दलीचन्द देशाई बीए. ए , एल-एल. बी. एडवोकेट हाईकोर्ट बम्बईने, अपने ‘जैन-साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक गुजराती प्रन्थ (पृ. ११६)मे लिखा है कि "सिद्धसेनसूरि प्रत्यनो आदर दिगम्बरो विद्वानोमा रहेलो देखाय छे" अर्थात् (मन्मतिकार) सिद्धसेनाचायके प्रति आदर दिगम्बर विद्वानोमे रहा दिखाई पड़ता है-श्वेताम्बरोमे नहीं। साथ ही हरिवंशपुराण, राजवार्मिक, सिद्धिविनिश्चय-टीका, रत्नमाला, पाश्वनाथचरित और एकान्तखण्डन-जसे दिगम्बर ग्रन्थों तथा उनके रचयिता जिनसेन, अकलङ्क, अनन्नवीर्य, शिवकाटि, वादिराज और लक्ष्मीभद्र(धर) जैसे दिगम्बर विद्वानाका नामाल्लेख करते हुए यह भी बतलाया है कि 'इन दिगम्बर विद्वानाने सिद्धसनसूरि-सम्बन्धी और उनके सन्मतितक-सम्बन्धी उल्लेख भक्तिभावसे किय हैं. और उन उल्लेखांसे यह जाना जाता है कि दिगम्बर प्रन्थकारांमे घना समय तक सिद्धसेनके (उक्त) ग्रन्थका प्रचार था और वह प्रचार इतना अधिक था कि उमपर उन्होंने टीका भी रची है। इस सारी परिस्थितिपरसे यह माफ समझा जाता और अनुभवमे आता है कि मन्मनिमूत्रके कर्ता सिद्धसेन एक महान दिगम्बराचार्य थे. और इसलिये उन्हें श्वेताम्बरपरम्पराका अथवा श्वेताम्बरत्वका समर्थक आचार्य बतलाना कोरी कल्पनाके सिवाय और कुछ भी नहीं है। वे अपने प्रवचन-प्रभाव आदिके कारण श्वेताम्बरमम्प्रदायमें भी उसी प्रकारसे अपनाये गय है जिस प्रकार कि स्वामी समन्तभद्र जिन्हें श्वेताम्बर पट्टालियाम पट्टाचार्य तकका पद प्रदान किया गया है और जिन्हें पं० मुखलाल, पं. बंचरदाम और मुनि जिनविजय आदि बड़े-बड़े श्वेताम्बर विद्वान भी अब श्वेताम्बर न मानकर दिगम्बर मानने लगे हैं। । कतिपय द्वात्रिशिकाओके का सिद्धसेन इन सन्मानकार सिद्धसेनसे भिन्न तथा पूर्ववर्ती दमर ही मिद्धसेन है. जैसा कि पहले व्यक्त किया जा चुका है. और सम्भवतः वे ही उज्जयिनीके महाकालमन्दिरवाली घटनाक नायक जान पड़त है। हो सकता है कि वे शुरूसे श्वेताम्बर सम्प्रदायम ही दीक्षित हुए हो. परन्तु श्वेताम्बर आगमाका संस्कृतमें कर देनेका विचारमात्र प्रकट करनेपर जब उन्हें बारह वर्ष के लिये मंघबाह्य करने-जैसा कठोर दण्ड दिया गया हो तब वे सविशेषरूपसे दिगम्बर साधुओक सम्पर्कमे आप ही उनके प्रभावसे प्रभावित तथा उनके संस्कारों एवं विचार्गको ग्रहण करनेमे प्रवृत्त हुए हो-ग्यामकर समन्तभद्रम्वामीके जीवनवृत्तान्ती और उनके माहित्यका उनपर मवम अधिक प्रभाव पड़ा हो और इमी लिये वे उन्ही-जैसे स्तुत्यादिक कार्योक करनेमे दचित्त हुए हो। उन्हींक मम्पर्क एवं संस्कारों में रहते हुए ही मिद्धसेनमे उज्जयिनीकी वह महाकालमन्दिरवाली घटना बन पड़ी हो. जिमसे उनका प्रभाव चारो ओर फैल गया हो और उन्हे भारी राजाश्रय प्राप्त हुआ हो । यह सब देखकर ही श्वेताम्बरसंघका अपनी भूल मालूम पड़ी हो. उसने प्रायश्चित्तकी शेष अवधिको रद्द कर दिया हो और सिद्धसेनको अपना ही माधु नथा प्रभावक आचार्य घापित किया हो। अन्यथा, द्वात्रिशिकापरसे सिद्धसेन गम्भीर विचारक एवं कठोर समालोचक होनेके साथ साथ जिस उदार स्वतन्त्र और निर्भय-प्रकृतिके समर्थ विद्वान जान पड़ते हैं उससे यह आशा नहीं की जा मकती कि उन्होंने ऐसे अनुचित एवं अविवेकपूर्ण दण्डको यों ही चुपके-से गर्दन मुका कर मान लिया हो, उसका कोई प्रतिरोध न किया हो अथवा अपने लिये

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