Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 472
________________ एए पुण संगहो पाडिक्कमलक्खणं दुवेण्हं पि । तम्हा मिच्छादिट्ठी पत्तयं दो वि मूल-गया ॥१३॥ ण य तइयो अस्थि गयो ण य सम्मत्त तेसु पडिपुगणं । जेण दुवे एगंता विभज्जमारणा अणेगंता ॥१४॥ इन गाथाओंके अनन्तर उत्तर नयोकी चर्चा करते हुए और उन्हें भी मूलनयोंके समान दुनय तथा सुनय प्रतिपादन करते हुए और यह बतलाते हुए कि किसी भी नयका एकमात्र पक्ष लेनेपर संसार, सुख, दुख, बन्ध और मोक्षकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, सभी नयांके मिथ्या तथा सम्यक रूपको स्पष्ट करते हुए लिखा है तम्हा सब्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोरणणिस्सिा उण हवंति सम्मत्तसम्भावा ॥२१॥ 'अतः सभी नय–चाह वे मूल या उत्तरोत्तर कोइ भी नय क्यों न हों जो एकमात्र अपने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध है वे मिथ्यादृष्टि है-वस्तुको यथार्थरूपसे देखनेप्रतिपादन करने में असमर्थ है। परन्तु जो नय परस्परमे अपेक्षाको लिये हुए प्रवर्तत है वे सब सम्यग्दृष्टि है-वस्तुको यथार्थरूपसे देखने-प्रतिपादन करनेम समर्थ है। तीसरे काण्डमे नयवादको चर्चाको एक दुसर ही ढङ्गसे उठाते हुए, नयवादके परिशुद्ध और अपरिशुद्ध पसे दो भेद सूचित किये है. जिनमे परिशुद्ध नयवादको आगममात्र अथका-केवल श्रु तप्रमाणके विपयका-साधक बतलाया है और यह ठीक ही है; क्योकि परिशुद्धनयवाद मापेक्षनयवाद होनेसे अपने पक्षका-अशोका-प्रतिपादन करता हुआ परपक्षका-दमरे अंशो-का निराकरण नहीं करता और इसलिय दुसरं नयवादके साथ विरोध न रखनके कारण अन्तको अ तप्रमाणके समग्र विषयका ही माधक बनता है। और अपरिशुद्ध नयवादको 'दुनिक्षिप्त' विशेपणके द्वारा उल्लेखित करते हुए स्वपक्ष तथा परपक्ष दानाका विघातक लिखा है और यह भा ठाक ही है, क्योंकि वह निरपक्षनयवाद हानेसे एकमात्र अपने ही पक्षका प्रतिपादन करता हुआ अपनसे भिन्न पक्षका सर्वथा निराकरण करता है-विरोधवृत्ति होनस उसके द्वारा श्र तप्रमाणका काई भी विपय नही सधता और इस तरह वह अपना भी निराकरण कर बैठता है। दूसर शमीम यह कहना चाहिए कि वस्तुका पूर्णरूप अनेक सापेक्ष अशा धमांसे निर्मित है जो परम्पर अविनाभाव-मम्बन्धको लिय हुए है, एकके अभावमें दृसरका अस्तित्व नहीं बनता यो. इलिय जा नयवाद परपक्षका मवथा निषेध करता है वह अपना भी निपचक होना-पाक अभावमे अपन स्वरूपको किसी तरह भी सिद्ध करनेम समर्थ नहीं हो सकता । नयवादक इन भदा और उनके स्वम्पनिर्दशके अनन्तर बतलाया है कि जितने वचनमाग है उतने ही नयवाद है और जितने (अपरिशुद्ध अथवा परस्परनिरपेक्ष एवं विराधी) नयवाद हैं उतने परसमय -जैनेनरदर्शन है। उन दशनामे कपिलका सांख्यदर्शन द्रव्याथिक नयका वक्तव्य है। शुद्धादनके पुत्र बुद्धका दशन परिशुद्ध पयायनयका विकल्प है। उलूक अर्थात कगादने अपना शास्त्र (वैशेषिक दर्शन) यद्यपि दोनों नयोके द्वारा प्ररूपित किया है फिर भी वह मिथ्यात्व है-अप्रमाण है, क्योंकि ये दोनो नयष्टियाँ उक्त दर्शनमे अपने अपने विपयकी प्रधानताके लिये परस्परमे एक दृमरेकी कोई अपेक्षा नहीं रखता।' इस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली गाथा निम्न प्रकार है परिसुद्धो णयवाओ आगममेत्तस्थ-साधको होइ । मोनाशिो नोगिmamim .......

Loading...

Page Navigation
1 ... 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548