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किरण ११ ]
सन्मात-सिद्धसनाक
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वर कृतिकोसनका ही नानाजता है
विधि, जिसका उल्लेख उग्रादित्याचार्य (विक्रम हवी शताब्दी)के कल्याणकारक' वैद्यक ग्रन्थ (२०-८५)में पाया जाता है। और ३ नीतिसारपुराण, जिसका उल्लेख केशवसेनसूरि (वि० सं० १६८८) कृत कर्णामृतपुराणके निम्न पद्योंमें पाया जाता है और जिनमें उसकी श्लोकसंख्या भी १५६३०० दी हुई है
सिद्धोक्त-नीतिसारादिपुराणोद्भूत-सन्मतिं । विधास्यामि प्रसन्मार्थ ग्रन्थं सन्दर्भगर्भितम् ॥१९॥ खंखाग्निरसवाणेन्दु (१५६३००) श्लोकसंख्या प्रसूत्रिता ।
नीतिसारपुराणस्य सिद्धसेनादिसूरिभिः ॥२०॥ उपलब्ध न होनेके कारण ये तीनों ग्रन्थ विचारोंमें काई सहायक नहीं हो सकते। इन आठ प्रन्थोंके अलावा चार ग्रन्थ और हैं-१ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २ प्रस्तुत सन्मतिसूत्र, ३ न्यायावतार और ४ कल्याणमन्दिर । 'कल्याणमन्दिर' नामका स्तोत्र ऐसा है जिसे श्वेताम्बर सम्प्रदायमे सिद्धसेनदिवाकरकी कृति समझा और माना जाता है। जबकि दिगम्बर परम्परामें वह स्तोत्रके अन्तिम पद्यमें मूचित किये हुए 'कुमुदचन्द्र' नामके अनुसार कुमुदचन्द्राचार्यकी कृति माना जाता है। इस विषयमें श्वेताम्बर-सम्प्रदायका यह कहना है कि सिद्धसेनका नाम दीक्षाके समय कुमुदचन्द्र' रवा गया था, आचार्यपदके समय उनका पुराना नाम ही उन्हें दे दिया गया या, ऐसा प्रभाचन्द्रसूरिके प्रभावकचरित (सं० १३३४,से जाना ज ता है और इसलिये कल्याणमन्दिर में प्रयुक्त हुआ कुमुदचन्द्र' नाम सिद्धसेनका ही नामान्तर है।' दिगम्बर समाज इसे पीछेकी कल्पना और एक दिगम्बर कृतिको हथियानेकी योजनामात्र समझता है; क्योकि प्रभावकचरितमे पहले सिद्धमेन-विपयक जो दो प्रबन्ध लिखे गये है उनमें कुमुदचन्द्र नामका कोई उल्लेग्न नहीं है-पं० सुग्वलाली और पं. बेचरदानजीने अपनी प्रस्तावनामे भी इस बातको व्यक्त किया है। बादके बने हुए मेम्तुगाचार्यके प्रबन्धचिन्तामणि (सं० १३६१)में और जिनप्रभसूरिके विविधतीर्थकल्प (सं० १३८६)में भी उसे अपनाया नहीं गया है। राजशेखरके प्रबन्धकांश अपरनाम चतुर्विशतिप्रबन्ध (सं० १४०५)मे कुमुदचन्द्र नामको अपनाया जरूर गया है परन्तु प्रभावकचरितके विरुद्ध कल्याणमन्दिरस्तोत्रको पार्श्वनाथद्वात्रिशिका'के रूपमे व्यक्त किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि वीरकी द्वात्रिशद्वात्रिशिका स्तुतिसे जब कोई चमत्कार देखनेमे नहीं आया तब यह पार्श्वनाथद्वात्रिशिका रची गई है, जिसके ११वे से नहीं किन्तु प्रथम पद्यसे ही चमत्कार प्रारम्भ हो गया । ऐसी स्थितिम पाश्वनाथद्वात्रिंशकाके रूपमे जा कल्याणमन्दिरस्तांत्र रचा गया वह ३२ पोका कोई दूसरा ही होना चाहिय न कि वतमान कल्याणमन्दिरस्तात्र जिमका रचना ४४ पद्योंम हुई है, और इससे दानो कुमुदचन्द्र भी भिन्न होने चाहिये । इसके सिवाय, वर्तमान कल्यागामन्दिरस्तोत्रमे प्रारभारसभृतनभांसि रजांसि गंपात' इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं जो पाश्वनाथको दैत्यकृत उपसगसे युक्त प्रकट करते है. जो दिगम्बर मान्यताके अनुकूल और श्वेताम्बर मान्यता प्रतिकूल हैं. क्योंकि श्वेताम्बरीय
-- --- - जिसपरसे जैनग्रन्थावलीमें लिया गया है; क्योंकि इसके साथमे जिस टीकाका उल्लेख है उसे 'गुणरत्न'
की लिखा है और हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चयपर भी गुणरत्नकी टीका है। १ "शालाक्यं पूज्यपाद-प्रकटितमधिकं शल्यतत्र चप त्रस्वामि-प्रोक्त विषोग्र ग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः प्रसिद्धः" २ "इत्यादिश्रीवीरद्वात्रिशद्वात्रिंशिका कृता । परं तस्मात्तादृशं चमत्कारमनालोक्य पश्चात् श्रीपावनाथद्वात्रिशिकामभिकत कल्याणमन्दिरस्तवं चक्र प्रथमश्लोके एव प्रासादस्थितात् शिखिशिखाग्रादिव