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सन्मांत-सिखसेनाइ
मासमन्तभन्द्रकी किसी माह। तब सिद्धसेनमय भी श्वेताम्बर माग
उपलब्ध जैनवाङमयमें समयादिककी दृष्टिसे आद्य तार्किकादि होनेका यदि किसीको मान अथवा अय प्राप्त है तो वह स्वामी समन्तभद्रको ही प्राप्त है। उनके देवागम (आप्तमीमांसा), युक्तयनुशासन, स्वयम्भूस्तोत्र और स्तुतिविद्या (जिनशतक) जैसे अन्य भाज भी जैनसमाजमें अपनी जोड़का कोई ग्रन्थ नहीं रखते। इन्हीं प्रन्थोंको मुनि कल्याणविजयजीने भी उन निर्ग्रन्थचूड़ामणि श्रीसमन्तभद्रकी कृतियाँ बतलाया है जिनका समय भी श्वेताम्बर मान्यतानुसार विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दी है । तब सिद्धसेनको विक्रमकी ५वीं शताब्दीका मान लेनेपर भी समन्तभन्द्रकी किसी कृतिको सिद्धसेनकी कृतिका अनुकरण कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता।
इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि पं० सुखलालजीने सन्मतिकार सिद्धसेनको विक्रमकी पांचवीं शताब्दीका विद्वान् सिद्ध करने के लिये जो प्रमाण उपस्थित किये है वे उस विषयको सिद्ध करनेके लिये बिल्कुल असमर्थ हैं। उनके दूसरे प्रमाणसे जिन सिद्धसेनका पूज्यपादसे पूर्ववर्तित्व एवं विक्रमकी पाँचवी शताब्दी में होना पाया जाता है वे कुछ द्वात्रिशिकाओके कर्ता है न कि सन्मतिसूत्रके, जिसका रचनाकाल नियुक्तिकार भद्र बाहुके समयसे पूर्वका सिद्ध नहीं होता और इन भद्रबाहुका समय प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् मुनि श्रीचतुरविजयी और मुनिश्री पुण्यविजयाने भी अनेक प्रमाणोक आधारपर विक्रमकी छठी शताब्दीक प्रायः तृतीय चरण तकका निश्चित किया है। पं० सुखलालीका उसे विक्रमकी दूसरी शताब्दी बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता । अतः सन्मतिकार मिद्धसेनका जो समय विक्रमकी छठी शताब्दी के तृतीय चरण और सातवी शताब्दीक तृतीय चरणका मध्यवर्ती काल निर्धारित किया गया है वहीं समुचित प्रतीत होता है. जब तक कि काई प्रबल प्रमाण उमक विराधर्म मामने न लाया जावे। जिन दृमर विद्वानाने इस समयसे पूवका अथवा उत्तरममयका कल्पना का है वह सब उक्त तीन सिद्धसनाका एक मानकर उनमसे किसी एकक ग्रन्थका मुख्य करक की गई है अर्थात् पूर्वका समय कतिपय द्वात्रिशिकााक उल्लखाका लक्ष्य करके और उत्तरका समय न्यायावतारको लक्ष्य करके कल्पित किया गया है। इस तरह तीन सिद्धसेनोको एकत्वमान्यना ही सन्मतिसूत्रकारके ठीक समयनिर्णयमे प्रबल बाधक रही है, इसाक कारण एक सिद्धसनक विषय अथवा तत्सम्बन्धी घटनाओको दूसरे सिद्धसेनांक साथ जोड़ दिया गया है, और यही वजह है कि प्रत्यक सिद्धमेनका परिचय थोड़ा-बहुत खिचड़ी बना हुआ है। (ग) सिद्धसेनका सम्प्रदाय और गुणकीर्तन
अब विचारणीय यह है कि मन्मतिसूत्रके कर्ता मिद्धसेन किस सम्प्रदायके प्राचार्य थे अर्थात दिगम्बर सम्प्रदायस सम्बन्ध रखते है या श्वताम्बर सम्प्रदायसे और किस रूपमे उनका गुण-कीर्तन किया गया है। प्राचार्य उमास्वाति(मी) और स्वामी समन्तभद्रकी तरह सिद्धसनाचार्यकी भी मान्यता दोनो मम्प्रदायोंमें पाई जाती है। यह मान्यता केवल विद्वत्ताक नाते आदर-सत्कारक रूपम नहीं और न उनक किमी मन्तव्य अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित किसी वस्तुतत्व या सिद्धान्त-विशेषका ग्रहण कग्नक कारण ही है बल्कि उन्हें अपने अपने सम्प्रदायक गुरुरूपमें माना गया है. गुर्वावलियों तथा पट्टावलियोंमें उनका उल्लेख किया गया है और उसा गुरुष्टिसे उनके स्मरण, अपनी गुणज्ञताको साथमे व्यक्त करते हुए, लिख गय है अथवा उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ अर्पित की गई है। दिगम्बर सम्प्रदायमे सिद्धसेनका सेनगण (संघ)का चाय माना जाता है और सेनगणका पट्टावली में उनका उल्लेख है। हरिवंश
१ तपागच्छपड़ावली भाग पहला पृ०E.| २ जैनसिद्धान्तभास्कर किरण १०२८।