Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 500
________________ - सन्मति-सिद्धसेनाक [४४९ इसको सिद्ध करनेके लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि सन्मतिसूत्र और तीसरी तथा नवमी द्वात्रिंशिकाएँ नीनों एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हैं। और यह सिद्ध नहीं है। पूज्यपादसे पहले उपयोगद्वयके क्रमवाद तथा अभेदवादके कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं. होते तो पूज्यपाद अपनी सर्वार्थसिद्धिमें सनातनसे चले आये युगपद्वादका प्रतिपादनमात्र करके ही न रह जाते बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादोंका खण्डन जरूर करते परन्तु ऐसा नहीं है, और इससे यह मालूम होता है कि पूज्यपादके समयमें केवलीके उपयोग-विषयक कमवाद तथा अभेदवाद प्रचलित नहीं हुए थे-वे उनके बाद ही सविशेषरूपसे घोषित तथा प्रचारको प्राप्त हुए है. और इसीसे पूज्यपादके बाद अकलङ्कादिकके साहित्यमें उनका उल्लेख तथा खण्डन पाया जाता है। क्रमवादका प्रस्थापन नियुक्तिकार भद्रबाहुके द्वारा और अभेदवादका प्रस्थापन सन्मतिकार सिद्धसेनके द्वारा हुआ है। उन वादोंके इस विकासक्रमका समर्थन जिनभद्रकी विशेषणवतीगत उन दो गाथाओं (केई भणंनि जुगवं' इत्यादि नम्बर १८४, १८५)से भी होता है जिनमें युगपन , क्रम और अभेद इन तीनो वादोके पुरस्कर्ताओंका इसी क्रमसे उल्लेख किया गया है और जिन्हे ऊपर (न० में) उद्धृत किया जा चुका है। पं० सुग्वलालजीने नियुक्तिकार भद्रबाहुको प्रथम भद्रबाहु और उनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दी मान लिया है. इसीसे इन वाटोंक क्रम-विकामको समझने में उन्हें भ्रान्ति हुई है। और वे यह प्रतिपादन करनेमे प्रवृत्त हुए है कि पहले क्रमवाद था. युगपनवाद बादको सबसे पहले वाचक उमास्वाति'-द्वारा जैन वाङमयमे प्रविष्ट हुआ और फिर उसके बाद अभदवादका प्रवेश मुख्यत: सिद्धसेनाचायके द्वारा हुआ है। परन्तु यह ठीक नहीं है। क्योकि प्रथम तो युगपतवादका प्रतिवाद भद्रबाहुकी आवश्यकनियुक्तिक "सव्वस्स कंवालस्स वि जगवं दाथि उवोगा' इम वाक्यमे पाया जाता है, जो भद्रबाहुका दूसरी शताब्दीका विद्वान माननके कारण उमाम्वानिके पूर्वका ठहरता है और इसलिये उनके विरुद्ध जाना है। दमर, श्रीकुन्दकुन्दाचायक नियममार-जैसे ग्रन्थी और आचार्य भूतबालके पटवण्डागममें भी युगपतवादका स्पष्ट विधान पाया जाता है । य दाना आचार्य उमास्वातिके पूर्ववर्ती हैं और इनक युगपद्वाद-विधायक वाक्य नमूनेक तौरपर इस प्रकार हैं: ___ "जुगवं वट्टइ गाण केवलणाणिस्स दंसण च तहा । दिणयर-पयास-तावं जह वट्टा तह मुणेयव्वं ॥" (णियम०१५९)। "सयं भयवं उप्पण-गाण-दरिसी सदेवाऽसुर-माणसस्म लोगस्स आगदि गर्दि चयणोववादं बधं मोक्ख इद्धि ठिदि जुदि अणभागं तक कलं मणोमाणमियं भुत्तं कदंपडिसंविदं श्रादिकम्मं अरहकम्मं मब्बलोए मन्चजीवे सव्वभावे सव्व सम जाणदि पस्मादि विहरदित्ति ।"-(पटखएडा० ४ पयडि अ. सू० ७८)। १ "स उपयोगो द्विविधः । शानोपयोगी दर्शनोपयोगचं ति । ........"साकार जानमनाकार दर्शनमिति । तच्छद्मस्थेष क्रमेण वर्तते । निरावरणेषु युगपत् ।" २ ज्ञानबिन्दु परिचय पृ०५, पादटिप्पा । ३ “मतिज्ञानादिचर्तुप पर्यायेणोपयोगी भवति, न युगपत् । सभिन्नशानदर्शनस्य तु भगवनः केवलिनो युगपत्मर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुममयमपयोगी मवति।" -तत्स्वार्थभाष्य १३१। ४ उमास्वातिवाचकको ५० सुखलालजीने विक्रमकी तीसरीमे पाँचवीं शताब्दीके मध्यका विद्वान् बतलाया है। (जा. वि. परि. पृ० ५४)। ५ इस पूर्ववर्तित्वका उल्लेख भवरणबेलगोलादिके शिलालेखों तथा अनेक ग्रन्थप्रशस्तियों में पाया जाता है।

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