Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 474
________________ किरण ११ ] सन्मात-सिद्धसनाक [४२३ . उनमें विरोध नहीं रहता और वह सहज ही कार्य-साधक बन जाती हैं। इसीपरसे दूसरा विशेषण ठीक घटित होता है, जिसमें उसे अमृतका अर्थात् भवदुःखके अभावरूप अविनाशी मोक्षका प्रदान करनेवाला बतलाया है क्योंकि वह सुख अथवा भवदुःखविनाश मिथ्यादर्शनोंसे प्राप्त नहीं होता, इसे हम ५१वीं गाथासे जान चुके हैं। तीसरे विशेषणके द्वारा यह सुझाया गया है कि जो लोग संसारके दु:खों-क्लेशोंसे उद्विग्न होकर संवेगको प्राप्त हुए हैं-सच्चे मुमुक्षु बने हैंउनके लिये जैनदर्शन अथवा जिनशासन सुखसे समझमें आने योग्य है-कोई कठिन नहीं है। इससे पहले ६४वी गाथामें 'अत्थगई उण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा' वाक्पके द्वारा सत्रोंकी जिस अर्थगतिको नयवादके गहन-वनमें लीन और दुरभिगम्य बतलाया था उसीको ऐसे अधिकारियोके लिये यहाँ सुगम घोषित किया गया है, यह सब अनेकान्तदृष्टिकी महिमा है। अपने ऐसे गुणोके कारण ही जिनवचन भगवत्पदको प्राप्त है-पूज्य है। ग्रन्थकी अन्तिम गाथामें जिस प्रकार जिनशासनका स्मरण किया गया है उसी प्रकार वह आदिम गाथामें भी किया गया है। आदिम गाथामें किन विशेषणोंके साथ स्मरण किया गया है यह भी पाठकोके जानने योग्य है और इसलिये उस गाथाको भी यहाँ उद्धत किया जाता है सिद्ध सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं । कुसमय - विसारणं सासण जिणाणं भव - जिणाणं ॥१॥ इसमे भवको जीतनेवाले जिनों-अर्हन्तोके शासन-आगमके चार विशेषण दिये गये हैं-१ सिद्ध • सिद्धार्थों का स्थान, ३ शरणागतोंके लिये अनुपम सुखस्वरूप, ४ कुसमयाएकान्तवादरूप मिथ्यामतांका निवारक । प्रथम विशेषणके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि जनशासन अपने ही गुणोसे आप प्रतिष्ठित है। उसके द्वारा प्रतिपादित सब पदार्थ प्रमाणसिद्ध है--कल्पित नही है-यह दूसरे विशेषणका अभिप्राय है और वह प्रथम विशेषण सिद्धत्वका प्रधान कारण भी है। तीसरा विशेषण बहुत कुछ स्पष्ट है और उसके द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि जो लाग वास्तवम जैनशासनका आश्रय लेते हैं उन्हें अनुपम मोक्ष-सुख तककी प्राप्ति होती है। चौथा विशेषण यह बतलाता है कि जैनशासन उन सब कुशासनो-मिथ्यादशनोके गवको चूर-चूर करनेकी शक्तिसे सम्पन्न है जो सर्वथा एकान्तवादका आश्रय लेकर शासनारूढ बने हुए है और मिथ्यातत्त्वोके प्ररूपण-द्वारा जगतमें दुःखोंका जाल फैलाये हुए है। इस तरह आदि-अन्तकी दोनों गाथाओंमें जिनशासन अथवा जिनवचन (जैनागम) के लिये जिन विशेषणोंका प्रयोग किया गया है उनसे इस शासन(दर्शन)का असाधारण महत्त्व और माहात्म्य ख्यापित होता है। और यह केवल कहनेकी ही बात नहीं है बल्कि सारे ग्रन्थमे इसे प्रदर्शित करके बतलाया गया है। स्वामी समन्तभद्रके शब्दामे 'अज्ञान-अन्धकारकी व्याप्ति(प्रमार )को जैसे भी बने दूर करके जिनशासनके माहात्म्यको जो प्रकाशित करना है उसीका नाम प्रभावना है। यह ग्रन्थ अपने विषय-वर्णन और विवेचनादिके द्वारा इस प्रभावनाका बहुत कुछ साधक है और इमीलिये उसकी भी गणना प्रभावक-ग्रन्थोंमें की गई है। यह ग्रन्थ जैनदर्शनका अध्ययन करनेवालों और जैनदर्शनसे जैनेतर दर्शनोंके भेदको ठोक अनुभव करनेको इच्छा रखनेवालोके लिये बड़े कामकी चीज है और उनके द्वारा खास मनायांगके साथ पढ़े जाने तथा मनन किये जानेके योग्य है। इसमें अनेकान्तके अङ्गस्वरूप जिस नयवादकी प्रमुख चचो है और जिसे एक प्रकारसे 'दुरभिगम्य गहन-वन'

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