Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 471
________________ -जगत प्रथमकाण्डमें दोनों नयोंके सामान्य-विशेष-विषयको मिश्रित दिखलाकर उस मिश्रितपनाकी चर्चाका उपसंहार करते हुए लिखा है दवट्टिो त्ति तम्हा पत्थि यो नियम सुद्धजाईयो। . ण य पञ्जवडिओ णाम कोई भयणाय उ विसेसो ॥९॥ 'अतः काई द्रव्यार्थिक नय ऐसा नहीं जा नियमसे शुद्धजातीय हो-अपने प्रतिपक्षी पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा न रखता हुआ उसके विषय-स्पर्शसे मुक्त हो । इसी तरह पर्यायार्थिक नय भी कोई ऐमा नही जो शुद्धजातीय हो-अपने विपक्षी द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा न रखता हुआ उसके विषय-स्पर्शसे रहित हो। विवक्षाको लेकर ही दोनोंका भेद है-विवक्षा मुख्य-गौणके भावको लिये हुए होती है, द्रव्यार्थिकमें द्रव्य-सामान्य मुख्य और पर्याय-विशेष गौण होता है और पर्यायार्थिकमे विशेष मुख्य तथा सामान्य-गौण होता है।' - इसके बाद बतलाया है कि- पर्यायार्थिकनयका दृष्टिमे द्रव्यार्थिकनयका वक्तव्य (सामान्य) नियमसे अवस्तु है। इसी तरह द्रव्यार्थिकनयको दृष्टिमे पर्यायार्थिकनयका वक्तव्य (विशेष) अवस्तु है। पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिमे सर्व पदार्थ नियमसे उत्पन्न हात है और नाशको प्राप्त हाते हैं। द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिमे न काई पदार्थ उत्पन्न होता है और न नाशको प्राप्त होता है। द्रव्य पर्याय(उत्पाद-व्यय)के विना और पर्याय द्रव्य(ध्रौव्य)के विना नहीं होत; क्योकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य य तानों द्रव्य-सत्का अद्वितीय लक्षण है। । य तीनों एक दृमरके माथ मिलकर ही रहते हैं, अलग-अलगरूपमे ये द्रव्य (सन)के कोई लक्षण नहीं होते और इसलिये दोनो मूल नय अलग-अलगरूपमें-एक दुसरेकी अपेक्षा न रखते हुएमिथ्यादृष्टि हैं। तीसरा कोई मूलनय नहीं है और ऐमा भी नहीं कि इन दोनों नयों में यथार्थपना न समाता हो-वस्तुके यथार्थ स्वरूपको पूर्णतः प्रतिपादन करनेमें य असमर्थ होक्योंकि दोनों एकान्त (मिथ्याष्टियाँ) अपेक्षाविशपको लेकर ग्रहण किये जाते ही अनकान्त (सम्यग्दृष्टि) बन जाते है। अर्थात दाना नयांमसे जब काई भी नय एक दृसरकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने ही विपयका मनरूप प्रतिपादन करनेका आग्रह करता है तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अरामें पूर्णताका माननेवाला हानमे मिथ्या है और जब वह अपने प्रतिपक्षी नयकी अपेक्षा रखता हुआ प्रवनंता है-उसके विपयका निरसन न करता हुआ तटस्थरूपसे अपने विपय (वक्तव्य)का प्रतिपादन करता है-तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अंशको अंशरूपमें ही (पूर्णरूपमे नहीं) माननेके कारण सम्यक व्यपदेशको प्राप्त होता है। इम सब आशयकी पॉच गाथाएँ निम्न प्रकार है दव्यट्टिय-वत्तव्यं अवत्थु णियमेण पञ्जवणयस्स । तह पज्जवत्थ अवत्धुमेव दबट्टियणयस्स ॥१०॥ उप्पज्जति वियंति य भावा पजवणयस्स । दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पण्णमविणट्ठ ॥११॥ दव्वं पज्जव-विउयं दव्व-वियुत्ताय पज्जवाणत्थि । उपाय-ट्रिह-भंगा हाद दवियलक्खणं एय ॥१२॥ १ "पजयविजुद दब्ब दवविजुत्ता य पजवा णस्थि । दोरह अणण्णभूद भाव समणा परूविति ॥१-१२॥" -पञ्चास्तिकाये, श्रीकुन्दकुन्दः । सद्रव्यलक्षणम् ॥ २६ ॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् ॥ ३०॥ -तत्त्वार्थसूत्र अ०५ । २ तीसरे कापडमें गुणार्थिक (गुणास्तिक) नयको कल्पनाको उठाकर स्वयं उसका निरसन किया गया है

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