Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 469
________________ ४५८ । अगफान्त इस प्रन्थके तीन विभाग हैं जिन्हें 'काण्ड' संज्ञा दी गई है। प्रथम काण्डको कुछ हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियोंमें 'नयकाण्ड' बतलाया है-लिखा है "नयकएडं सम्मत्त" और यह ठीक ही है। क्योंकि सारा काण्ड नयके ही विषयको लिये हुए है और उसमें द्रव्यार्थिक तथा पर्यायांर्थिक दो नयोको मूलाधार बनाकर और यह बतलाकर कि 'तीर्थकर वचनोंके सामान्य और विशेषरूप प्रस्तारके मूलप्रतिपादक ये ही दो नय हैं-शेष सब नय इन्हीके विकल्प हैं', उन्हीके भेद-प्रभेदों तथा विषयका अच्छा सुन्दर विवेचन और संसूचन किया गया है। दूसरे काण्डको उन प्रतियोंमें 'जीवकाण्ड' बतलाया है-लिखा है "जीवकंडयं सम्मत्तं"। पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीकी रायमें यह नामकरण ठीक नहीं है. इसके स्थानपर 'ज्ञानकाण्ड' या 'उपयोगकाण्ड' नाम होना चाहिये; क्योंकि इस काण्डमें, उनके कथनानुसार जीवतत्त्वकी चर्चा ही नहीं है.-पूर्ण तथा मुख्य चर्चा ज्ञानकी है। यह ठीक है कि इस काण्डम ज्ञानकी चर्चा एक प्रकारसे मुख्य है परन्तु वह दर्शनकी चर्चाको भी साथ लिये हुए हैउसासे चर्चाका प्रारम्भ है-और ज्ञान-दर्शन दाना जीवद्रव्यका पर्याय है, जीवद्रव्यसे भिन्न उनकी कही कोई सत्ता नहीं, और इमलिये उनकी चर्चाको जीवद्रव्यकी ही चर्चा कहा जासकता है। फिर भी ऐसा नहीं है कि इसमें प्रकटरूपसे जीवतत्त्वका काई चर्चा ही न हो-दूसरी गाथामे दव्वदिओ वि होऊण दमण पज्जवट्टि होई' इत्यादिरूपसे जीवद्रव्यका कथन किया गया है, जिसे पं. सुखलालजी आदिने भी अपने अनुवादमे "आत्मा दर्शन वखत" इत्यादिरूपसे स्वीकार किया है। अनेक गाथाओंम कथन-मम्बन्धको लिये हुए सर्वज्ञ, केवलो, अर्हन्त तथा जिन जैसे अर्थपदोंका भी प्रयोग है जो जीवके ही विशेष है। और अन्तकी 'जीवो अगाइणिहणो'से प्रारम्भ होकर 'अण्णं वि य जीवपजाया' पर समाप्त होनेवाली सान गाथाओं में तो जीवका स्पष्ट ही नामोल्लेखपूर्वक कथन है-वही चर्चाका विषय बना हुआ है। ऐसी स्थितिमे यह कहना समुचित प्रतीत नहीं होता कि 'इम काण्डमें जीवतत्त्वकी चर्चा ही नहीं है और न 'जीवकाण्ड' इस नामकरणको सर्वथा अनुचित अथवा अयथार्थ हा कहा जा सकता है। कितने ही प्रन्थोमें ऐसी परिपाटी देखनेमे आती है कि पर्व तथा अधिकारादिके अन्तमें जा विषय चर्चित होता है उसीपरसे उस पर्वादिकका नामकरण किया जाना है, इस दृष्टिसे भी काण्डके अन्त में चर्चित जीवद्रव्यकी चर्चाकै कारण उसे 'जीवकाएड' कहना अनुचित नहीं कहा जा सकता। अब रही तीसरे काण्डकी बात, उसे कोई नाम दिया हुआ नहीं मिलता। जिस किसान दा काण्डोका नामकरण किया है उसने तीसरे काण्डका भी नामकरण जरूर किया होगा, सम्भव है खोज करते हुए किसी प्राचीन प्रतिपरसे वह उपलब्ध हो जाए। डा० पी० एल० वैद्य एम.एने, न्यायावतारकी प्रस्तावना (Introduction)में, इस काण्डका नाम अमन्दिग्धरूपसे 'अनेकान्तवादकाण्ड' प्रकट किया है। मालूम नहीं यह नाम उन्हें किस प्रतिपरसे उपलब्ध हुआ है। काण्डके अन्तमें चर्चित विपयादिकका दृष्टिसे यह नाम भी ठाक हो सकता है। यह काण्ड अनेकान्तदृष्टिको लेकर अधिकांशमें सामान्य-विशेषरूपसे अर्थकी प्ररूपणा और विवेचनाको लिये हुए है. और इसलिये इसका नाम 'सामान्य-विशेषकाण्ड' अथवा द्रव्य-पर्याय-काएद' जैसा भी कोई हो सकता है। पं. सुखलालजी और पं० बेचरदास जीने इसे ज्ञेय-काण्ड' सूचित किया है, जो पूर्व-काण्डको ज्ञानकाण्ड' नाम देने और दोनों काण्डोके नामोंमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत प्रवचनसारके ज्ञान-ज्ञेयाधिकारनामोंके साथ समानता लानेकी दृष्टिसे सम्बद्ध जान पड़ता है। १ तित्थयर-वयण सगह-विसेस-पत्थारमूल वागरणी। दबहिश्रो य पजवणश्रो य सेसा वियप्पासिं ॥३॥ २ जैसे जिनसेनकृत हरिवंशपुराणके तृतीय सर्गका नाम 'भेणिकप्रश्नवर्णन', जब कि प्रभके पूर्वमें वीरके

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