Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 470
________________ इस ग्रन्थकी गाथा - संख्या ५४, ४३, ७० के क्रमसे कुल १६७ है । परन्तु पं० सुखलाल - जी और पं० बेचरदासजी उसे अब १६६ मानते हैं; क्योंकि तीसरे काण्डमें अन्तिम गाथाके पूर्व जो निम्न गाथा लिखित तथा मुद्रित मूलप्रतियोंमें पाई जाती है उसे वे इसलिये वादको प्रक्षिप्त हुई समझते हैं कि उसपर अभयदेवसूरिकी टीका नहीं है : जे विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ग णिव्वडइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अगंतवायस्स ॥ ६९ ॥ Loc इसमें बतलाया है कि जिसके बिना लोकका व्यवहार भी सर्वथा बन नहीं सकता उस लोकके अद्वितीय (असाधारण) गुरु अनेकान्तवादको नमस्कार हो ।' इस तरह जो अनेकान्तवाद इस सारे ग्रन्थकी आधारशिला है और जिसपर उसके कथनोंकी ही पूरी प्राणप्रतिष्ठा अवलम्बित नहीं है बल्कि उस जिनवचन, जैनागम अथवा जैनशासनकी भी प्राणप्रतिष्ठा अवलम्बित है, जिसकी अगली (अन्तिम) गाथामें मङ्गल कामना की गई है और ग्रन्थकी पहली (आदिम) गाथामे जिसे 'सिद्धशासन' घोषित किया गया है, उसीकी गौरव गरिमाको इस गाथामें अच्छे युक्तिपुरस्सर ढङ्गसे प्रदर्शित किया गया है। और इसलिये यह गाथा अपनी कथनशैली और कुशल - साहित्य-योजनापरसे प्रन्थका अङ्ग होनेके योग्य जान पड़ती है तथा ग्रन्थकी अन्त्य मङ्गल-कारिका मालून होती है । इसपर एकमात्र अमुक टीकाके न होनेसे ही यह नहीं कहा जा सकता कि वह मूलकारके द्वारा योजित न हुई होगी, क्योंकि दूसरे प्रन्थोंकी कुछ टीकाएँ ऐसी भी पाई जाती हैं जिनमेसे एक टीकामें कुछ पद्य मूलरूपमें टीका सहित हैं तो दुसरीमें वे नही पाये जाते' और इसका कारण प्रायः टीकाकारको ऐसी मूलप्रतिका ही उपलब्ध होना कहा जा सकता है जिसमें वे पद्य न पाये जाते हो । दिगम्बराचार्य म (सन्मति ) देवकी टीका भी इस ग्रन्थपर बनी है, जिसका उल्लेख वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरित (शक संo १४५ ) के निम्न पद्यमें किया है: नमः सन्मतये तम्मै भव- कूप निपातिनाम् । सन्मतिर्विवृता येन सुखधाम - प्रवेशिनी ॥ यह टीका अभी तक उपलब्ध नही है —योजका कोई खास प्रयत्न भी नहीं हो सका । इसके सामने आनेपर उक्त गाथा तथा और भी अनेक बातोपर प्रकाश पड़ सकता है; क्योंकि यह टीका सुमतिदेव की कृति होनेसे ११वीं शताब्दीके वेताम्बरीय आचार्य अभयदेवकी टीकासे कोई तीन शताब्दी पहलेकी बनी हुई होनी चाहिये । श्वेताम्बराचार्य मल्लवादीकी भी एक टीका इस प्रन्थपर पहले बनी है जो आज उपलब्ध नहीं है और जिसका उल्लेख हरिभद्र तथा उपाध्याय यशोविजयके ग्रन्थोमें मिलता है । इस प्रन्थमें विचारको दृष्टि प्रदान करनेके लिये, प्रारम्भसे ही द्रव्यार्थिक (द्रव्यास्तिक) और पर्यायार्थिक (पर्यायास्तिक) दो मूल नयोको लेकर नयका जो विषय उठाया गया है वह प्रकारान्तरसे दूसरे तथा तीसरे काण्डमें भी चलता रहा है और उसके द्वारा नयवादपर छा प्रकाश डाला गया है । यहाँ नयका थोड़ा-सा कथन नमूने के तौरपर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे पाठकोंको इस विषयकी कुछ झॉकी मिल सके: १ जैसे समयसारादिग्रन्थोंकी अमृतचन्द्रसूरिकृत तथा जयसेनाचार्यकृत टीकाएँ, जिनमें कतिपय गाथा न्यूनाधिकता पाई जाती है । २ “उक्त च बादिमुख्येन श्रीमल्लवादिना सम्मतो” (अनेकान्तजयपताका ) " दायें कोटिशा भगा निर्दिष्टा मल्लवादिना ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548