Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 443
________________ ३६६ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ - आस्वादन करना चाहता था, किन्तु भवदत्तने फिर और सातवें दिन मनुष्यरूपमें अवतरित होगा । उसे रोक दिया । भवदेव अन्तमें संसारको त्यागकर श्रेणिकराजने वर्धमान जिनसे फिर. विद्युन्माली जिन अन्तिम दीक्षा ले लेता है। दोनों भाई तप करते हुए चार देवियोके साथ रमण करता था, उनके पूर्व अवसान-समयमें पंडितमरणसे मरते हैं. दोनों सनत्कु- भवान्तरोके विषयमें पूछा। जिनवरने बताया कि चंपा मार स्वर्गमें जाते हैं और वहाँ सप्तसागर आयु तक नगरीमें सूरसेन नामक धन-सम्पन्न श्रेष्ठी था. उसकी वास करते हैं, देवयोनिमें रहकर वे विमानोंमें चढ़कर जयभद्रा, सुभद्रा. धारिणी. यशोमती नामक चार रमण करते हैं । (सन्धि २) स्त्रियाँ थीं। वह श्रेष्ठी पूर्वसंचित पापकर्मोके फलस्वरूप ___ भवदत्तका जन्म स्वर्गसे च्युत होनेपर पंडरोकिनी व्याधिग्रस्त होकर मर गया और उसकी चाराँ पत्नियाँ नगरीमें वनदन्त राजाकी रानी यशोधनाके पत्रके रूप आजिका होगई । तपःसाधन करनेके पश्चात मरकर में हुआ और भवदेव वीतशोका नगरीके राजा वे स्वर्गमें विद्युन्मालीकी पत्नियाँ हुई। इसके पश्चात महापद्मकी रानी वनमालाके पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ। श्रेणिकराजने विद्युञ्चरके विषयमें पूछा कि इतना भवदत्तका नाम सागरचन्द रक्खा गया और भवदेव तेजवान होनेपर भी वह चोरत्वको क्यों प्राप्त हुआ ? का शिवकुमार। शिवकुमारका एकसौपाँच (सयपंच) जिनवरने बताया कि मगधदेशमें हस्तिनापुर नगर था. राजकन्याओंसे परिणय होगया और कोड़ियों उनके वहाँ विसन्धर राजा था, उमकी प्रिया श्रीसेना थी, अङ्गरक्षक थे। उन्हें बाहर नहीं जाने दिया जाना था। उसका पुत्र विद्युञ्चर हुआ। वह सकल विद्याओं में उधर पुंडरीकिनी नगरीके समीप उपवनमें चारण पारङ्गत था । विद्याबलसे वह चोरी करता था। मुनियोंसे पूर्व जन्मका वृत्तान्त सुनकर सागरचन्दने औषधिसे ग्वम्भ बनाकर रत्रिको अपने पिताके घरमें संन्यास (साधुदीक्षा) व्रत ले लिया था और द्वादश- पहुँचकर चोरी कर लेता था, जगते हुए राजाको सुपुप्त विधि तपश्चर्या में रत था। एक बार वह वीतशोका। कर देता था और कटि-हार आदि आभूषण उतार नगरीमें पहुँचा । शिवकुमारने प्रासादोके ऊपरसे लेता था, वह राज्य छोडकर राजगृह नगरी चला गया मुनियोंको देखा । उसे पूर्व जन्मोंका स्मरण हो आया और चारा करने लगा। इसीसे उसका नाम विद्यञ्चर और वैराग्य-भावोंका उसके मनमें उदय हुआ । यह हुश्रा (सन्धि ३)। देखकर राजप्रासादमें कोलाहल मच गया। राजाने चतुर्थ सन्धि वीरकविकी प्रशंसासे प्रारम्भ होती आकर कुमारको समझाया कि घरमे ही रहकर तप है। वर्धमान जिस समय कथा प्रारम्भ कर रहे थे कि और व्रतोंका पालन हो सकता है, संन्यास लेनेकी एक यक्ष उठकर नाचने लगा। पश्चिम केवली मगधमें आवश्यकता नहीं है । पिताके वचनोंको मानकर अरहदास वणिकके कुलमें जन्म होनेकी बात सुनकर कुमारने नवविध श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया, वह आनन्दित होकर नाच रहा था। विस्मित होकर तरुणीजनोके पास रहते हुए भी उनसे वह विरक्त राजाने आनन्दसे नाचते हुए यक्षसे प्रश्न किया। रहता था। उपवास करता था। दूसरे घरोसे भिक्षा जिनेन्द्रने इस प्रकार उत्तर दिया-सइत्तउ नगरी थी लेकर पारणा करता था। इस प्रकार तप करके अन्तमें वहाँ सन्तप्रिय (संताप्पिउ) वणिक रहता था। उसकी इस लोकको छोड़कर वह विद्युन्माली देव हुश्रा। गोत्रवती प्रिया थी अरहदास उसका पुत्र था, दूसरा दससागर उसकी आयु हुई और चार देवियोंके साथ पुत्र जिनदास था। जिनदास तरुण अवस्थामे दुर्व्यसुख भोग करता था। उधर सागरचन्द भी मरकर सनोंमें फंस गया। मदिरा पीता था, इतक्रीड़ामें रत सुरलोकमें इन्द्र के समान देव हुआ । वर्धमान जिनने रहता था । किन्तु उसने अन्तमें श्रावक व्रत लेकर राजाको बताया कि यही विद्युन्माली वहाँ आया था पाप विमर्जित किए और वह मरकर यक्ष हुआ इसके

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