Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 424
________________ किरण १० ] मानने हुए भी अनीश्वरवादी था. भगवान बुद्ध संभतः इसी वर्ग थे उन्होंने देखा कि मनुष्य श्रज्ञात ईश्वर और आत्मतत्त्वके मोहमें पड़ कर विविध अन्धविश्वासों एवं संग्रहशील प्रवृत्तियोंमें उलझा है. फलतः ईश्वर और आत्माका निषेध करते हुए उन्होंने वर्तमान और दृश्यमान दुख- समूहके विरोधका उपाय बताया | भगवान बुद्ध पूर्वतः अहिंसावादी थे. महावीर और बुद्ध तात्त्विक अन्तर यह था कि महावीर आत्माकी सत्ता स्वीकार करते हुए भी उसे ईश्वर होने के योग्य समझते है. उपनिषद् में एक ही ब्रह्मको समूची चेतनाका प्रतिनिधि स्वीकार किया गया है । इस तरह ये तीनों विचार धाराएँ अपने ढङ्ग से भारतीय संस्कृतिमे अहिंसक भावना ढाल रही थी साकी दार्शनिक पृष्टभूमिमे आगे चलकर इन विचारोंका बहुत गहरा असर दिखाई देगा। सबसे बड़ी बात यह है कि दार्शनिक चिंतनमें भेद होते हुए भी 'अहिंसा' की उपासनामें भारतीय विचारकोंकी समान आस्था बढ़ी | महावीर और बुद्धकी धमदेशना का तो ऐसा प्रभाव पड़ा कि यज्ञोकी प्रथा भारतीय सामाजिक जीवनसे एक दम उठ गई और उसके स्थानपर सात्विक जीवन, मित आहार-विहार एवं श्रात्म-चिन्तनकी प्रवृत्ति बड़ी यज्ञकी जगह भक्ति, भारतीय लोक-जीवन में स्फुरित हुई । वैदिकांकी आश्रम - प्रणाली' मे श्रहिसाका भाव ही सर्वोपरि दीख पड़ता है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी इन चारों श्रश्रमोके क्रमिक अध्ययनसे यह भली भाँति स्पष्ट होजाता है कि वैदिक साधककी जीवन-साधना किस प्रकार आागेके श्राश्रमांमे अहिंसक एकान्त किचन और आत्म-निर्भर होती चली गई है । उच्चकोटिके सन्यासीको परमहंस' की संज्ञा दी गई है इसका अर्थ है आत्मा' । परम अर्थात् उत्कृष्ट आत्मविकासका यह उत्कृष्ट रूप बलिदान और बाह्य आडम्बर से कथमपि प्राप्य नहीं, वह श्रात्मचिन्तन और साधना द्वारा ही सम्भव है। ऊपर इस बातका सकेत हो चुका है कि भारतीय संस्कृतिमें पशुबल' चित्य और अनौचित्यके सिलसिले में हिंसा और भारतीय इतिहास में अहिंसा [ ३७७ अहिंसाका प्रश्न उठा था परन्तु इसका आशय यह नहीं है कि उसका प्रभाव समाजके सामूहिक और व्यक्तिगत जीवन पर नहीं पड़ा । दार्शनिक जागरणके साथ साथ हिंसा की परिभाषामें भी बहुतमा हेरफेर हुआ एक समय नारा था 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" – इसका सीधा अर्थ था कि अहिंसा अच्छी वस्तु है परन्तु वैदिकी हिंसा भी हिंसा नहीं अपितु हिंसा ही है । पर यह तर्क अधिक दिन नहीं ठहरा । श्रार्य जीवनके धार्मिक क्षेत्रोंमें रक्तपात तो नहीं हुआ किन्तु भोग विलास और सामाजिक उत्सव में अभी भी कर हिंसा होती थी । अशोककी धर्मनीति एवं सामाजिक सुधारोंसे इन बातों पर अच्छा प्रभाव पडता है। मनुष्य में अपने विश्वास और विचारो के प्रति बहुत ही कट्टर ममता होती है. एक बार जो विचार उसके मनमें जम जाता उमे शीघ्र हटाना बहुत कठिन है। पिछली धार्मिक क्रान्ति में हिंसा अवश्य कम हुई थी परन्तु पुनः लोग उसकी ओर आकृष्ट होरहे थे । बुद्ध और महावीरके प्रयत्नों से धार्मिक श्रहिमाका प्रसार तो हुआ परन्तु सामाजिक जीवनमें वह अभी पूरे तौरपर प्रतिष्ठित नहीं हुई थी। इतने विशाल देशमें महमा युगोके संस्कारों को बदलना भी आसान बात नहीं थी । अशांक जब शासनारूड हुआ तो उसने भीरतीय इतिहासमें एक सर्वथा नई और उदान्त नीतिका प्रवर्तन किया । यह नीति कलिङ्ग युद्धको लेकर शुरू हुई। या तुरन्त राज्य स्थापनाका कार्य जारी करते हुए उसने कलिङ्ग (उड़ीसा) पर हमला बोला। कहते हैं उसमें २|| लाख कलिङ्ग वासियांने अपनी स्वाधीनताके लिये प्राणाहुति दे दी। इस भयङ्कर रक्तपातने विजेता अशोकके विचारोंपर गहरी छाप डाली। उसने तलवारकी अपेक्षा धर्मविजय द्वारा अपने राज्यका विस्तार किया उस समय सामाजिक उत्सव तथा खानपानमें बहुत ही भोंडी हिंसा होती थी. अशांकने उसे विहिसा' कहा है। 'समाज' और 'विहार यात्रा' जिसमें कि अकारण पशुओका वध होता था उसने बन्द करवा दी और उसके स्थानपर धर्मयात्राकी नींव डाली। .

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