Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 422
________________ भारतीय इतिहास में अहिंसा ( लेखक - श्रीदेवेन्द्रकुमार ) 1441 सृष्टि और मनुष्यका विकास कैसे हुआ, यह प्रश्न अभी भी विवाद प्रस्त है । धार्मिक कल्पना और वैज्ञानिक अनुसन्धान भी इस विषयमे हमारी अधिक सहायता नहीं करते । इतिहासकारोंने सृष्टि विकासके जो सिद्धान्त स्थिर किये हैं उनके अनुसार मानव जातिका इतिहास कुछ ही हजार वर्षोंका है। अग्रेज इतिहासकार, एम० जी० वेल्सने विश्व इतिहासकी रूपरेखा खींचते हुए, ई० पू० छठवीं सदीको मानवीय सभ्यताकी विभाजक रेखा स्वीकार किया है। आपके अनुसार यह सदी ही वह समय है जब मानवजातिने दर्शन और चिन्तनके नये युगमें कदम रक्खा । और तभी से आधुनिक विचारधाराकी नींव पड़ी। एच० जी० वेल्सका यह भी कहना है कि आरम्भिक युगों मनुष्य निरा असभ्य था । बहुत युगों के विकास के बाद उसमे विचारपूर्वक सोचने की चेतना आई और उसने रक्तिम बलिदान, पुरोहिती तथा आडम्बर के विरुद्ध क्रान्ति की, यह क्रान्ति भारत, बेवोलीन, चीन और एफेससमे एक साथ हुई। इस काल में कई समाज नेता और सुधारक उत्पन्न हुए, जिन्होंने पुराने गुरुडमका विरोध कर नये श्रादर्शों की प्रतिष्ठा की। उनके मतसे सरल जीवन और आत्मसंयम ही जीवन सुखी बनानेका सच्चा उपाय था। जहाँ तक विश्व इतिहासकी दृष्टिसे विचार करनेका प्रश्न है, उक्त लेखकका कथन प्रायः ठीक है । परन्तु भारतीय इतिहास में यह 'मामाजिक क्रान्ति' ई० पू० छटवीं सदीके कई सौ वर्ष पहिले हो चुकी थी; भगवान महावीर और बुद्धने जिस विचार धारापर जोर दिया वह बहुत प्राचीनकाल से भारतीय जीवनमे प्रवाहित होती चली आ रही थी, उसका ठीक आकलन किये बिना हम अहिंसाका सही विकास नहीं समझ सकते । 'वेद वाङ्गमय' भारतका ही नहीं विश्वका प्राचीन वाङ्गमय है । उसका तथा दूसरी सभ्यताओंके विकास का अध्ययन करनेसे एक बात विशेषरूपसे हमारा ध्यान आकर्षित करती है और वह यह कि सभी सभ्य मानव जातियाँ आरम्भमें शिकार और खेतीबाडीसे अपना कार्य चलाती रहीं। इस प्रथाके साथ 'शुबलि ' अनिवार्य रूपसे जुड़ी हुई थी। कहीं-कहीं मनुष्योंकी भी बलि दी जाती थी, वेदोंमें मनुष्यबलिका उल्लेख नहीं मिलता परन्तु पशुबलिका स्पष्ट विधान है। यज्ञ वैदिक आर्योंका प्रधान सामाजिक उत्सव था । उसमें सभी जातिके लोग भाग लेते । यज्ञका मुख्य लक्ष्य ऐहिक सुख-समृद्धि था, धन धान्यकी बढ़ती और शत्रुओंका संहार ही आरम्भिक धार्योंकी धामिकताका उद्देश्य था। पर ज्यों-ज्यों उनमें विचार चेतना बढ़ी त्यों-त्यों पशुबलिके विरुद्ध भीषण प्रतिक्रिया जोर पकड़ती गई। इस प्रतिक्रियाका स्पष्ट भास हमें उत्तर वैदिककालमें होने लगता है । आगे चलकर 'मोलह महाजनपद' युगमें वह आभास, कोरा आभास ही नहीं रह जाता किन्तु अहिंसा भारतीय संस्कृति की 'रीढ' बन जाती है। महावीर और बुद्धके युगसन्देशोंके लिये पृष्ठभूमि बहुत पहिले से बनना शुरू होगई थी, और एक प्रकारसे उनके समय भारतीय राजनीति, समाजसंस्थान और दार्शनिक विचार स्पष्टरूपसे अपना आकार-प्रकार ग्रहण कर चुके थे, उन्होंने उसमें केवल 'अहिंसा और मनुष्यता' का दार्शनिक एवं आध्यात्मिक सौन्दर्य प्रतिष्ठित कर उसे नई दिशामें मोड़ा। ऊपर कहा जा चुका है कि महावीर और बुद्धके पहले ही 'हिंसा और अहिंसा' का संघर्ष शुरू

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