Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 383
________________ ३४० ] अनेकान्त [ वर्ष ण वि कुव्वदि कम्मगुरोजीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । और हमे यह उत्तर देना ही था। ये सब बातें न अगणोराणिमित्तण दु कत्ता आदा सारण भावेण ॥ अनुभव सिद्ध कार्यकारणभावके अनुकूल ही हैं और पुग्गलकम्मकदाणं रण दु कत्ता सव्वभावारणं ॥ न तकसिद्ध। अर्थात जीवक भावोके निमित्तसे पगलांकी कर्मम्प वहारपर्याय होती है और पुदलकति निमित्तसे जीव निश्चयनय वस्तुकी परनिरपेक्ष स्वभूत दशाका रागादिरूपम परिगणमन करता है। इतना समझ लेना वर्णन करता है। वह यह बतायगा कि प्रत्येक जीव चाहिए कि जीव उपादान बनकर पुद्गलके गुणरूपमे स्वभावसे अनन्तज्ञान-दर्शन या अखण्ड चैतन्यका परिणमन नहीं कर सकता और न पुगल उपादान पिण्ड है। आज यद्यपि वह कर्मनिमित्तसे विभाव बनकर जीवके गुणरूपसे परिणति कर सकता है। परिणमन कर रहा है पर उसमें स्वभावभूत शक्ति हॉ. परम्पर निमित्ननमितिक सम्बन्धक अनुमार अपने प्रचण्ड निर्विकार चैतन्य होनेकी है। व्यवदानोका परिणमन होता है। इस कारण उपादानोष्ट- हारनय परसाक्षेप अवस्थाओंका वर्णन करता है । मे आत्मा अपने भावोंका कर्ता है. पुद्गलके ज्ञाना वह जहॉ आत्माको पर-घटपटादि पदार्थोके कतृत्वके वरणादिरूप द्रव्यकमात्मक परिणमनका कत्ता नहीं है। वर्णनसम्बन्धी लम्बी उड़ान लेता है वहाँ निश्चयनय ___ इस स्पष्ट कथनम कुन्दकुन्दाचार्यकी कर्तृत्व- गगादि भावोके कर्तृत्वको भी प्रात्मकोटिमे बाहर अकर्तृत्वकी दृष्टि समझमे आ जाती है। इसका निकाल लेता है और आत्मानो अपन शुद्ध भावांका ही विशद अर्थ यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमनमे की बनाता है अशद्ध भावांका नहीं । निश्चयनयकी उपादान है दसग उसका निमित्त हो सकता है उपा- भतार्थताका तात्पर्य यह है कि वही दशा आत्माक लिग दान नहीं। परम्पर निमित्नम दाना उपादानोका अपने वास्तविक उपादेय है. परमार्थ है. यह जो गगादिम्प अपने भावरूपसे परिणमन होता है। इसमें निमित्त- विभावपरिणति है यह अभूनाथ है अर्थात आत्माके नैमित्तिकभावका निषेध कहाँ है? निश्चय हटिसे पर- लिए उपाय नहीं है इसके लिए वह अपरमार्थ है निरपेक्ष आत्मस्वरूपका विचार है उममें कतृत्व अग्राह्य है। अपने उपयोगरूपम ही पयमित हाना है। अतः कुन्दकुन्दके मतमे द्रव्यम्वरुपका अध्यात्ममे वही निश्चयनयका वर्णन हमारा लक्ष्य हैनिरूपण है जो आगे समन्तभद्रादि प्राचार्याने अपने निश्चयनय जो वर्णन करता है कि मै सिद्ध हूँ अन्यामे बताया है। बुद्ध है निर्विकार हे निष्कषाय हूँ यह सब हमारा लक्ष्य है। इसमे है के स्थानमें हो सकता हूँ' यह प्रयोग मूलमें भूल कहां ?-- भ्रम उत्पन्न नहीं करंगा । वह एक भाषाका प्रकार है। __ इममे कहाँ मूलमे भूल है ? जो उपादान है वह जब साधक अपनी अन्तर्जल्प अवस्थामे अपने ही उपादान है जो निमिन है वह निमित्त ही है। कुम्हार आत्माको मम्बोधन करता है कि हे आत्मन. तू तो घटका कनों है यह कथन व्यवहार हो सकता है। स्वभावसे मिद्ध है बुद्ध है, वीतराग है, आज फिर कारण. कुम्हार वस्तुतः अपनी हलन-चलनक्रिया यह तेरी क्या दशा हो रही है तू कषायी और अज्ञान तथा अपने घट बनाने के उपयोगका ही कर्ता है, उसके बना है। यह पहला सिद्ध है बुद्ध है वाला' अंश दूसरे निमिनमे मिट्टीके परमागामें वह श्राकार उत्पन्न हो 'आज फिर तेरी क्या दशा हो रही है तू कषायी जाता है। मिट्टीका घड़ा बनना ही था और कुम्हारके अज्ञानी बना है। इस अंशसे ही परिपूर्ण होता है। हाथको वैमा होना ही था और हमे उसकी व्याख्या इस लिए निश्चयनय हमारे लिए अपने द्रव्यगतगमी करनी ही थी. आपको ऐसा प्रश्न करना ही था मूलम्वभावकी ओर संकेत कराता है जिसके बिना

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