Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 20
________________ आलोक प्रज्ञा का ज्ञान क्या? १४. निमन्त्रितं स्याद् वार्धक्यं, रोगा अपि निमन्त्रिताः । अनिमन्त्रणविज्ञानं, ज्ञानं प्राहुर्बुधा इदम् ॥ बुढापा बुलाया हुआ आता है, रोग भी बुलाए हुए आते हैं। उन्हें निमन्त्रण न देने का जो विज्ञान है, उसी को ज्ञानी पुरुष ज्ञान कहते हैं। सत्य की अनुभूति १५. समानो वर्तते जीवः, नानात्वं कथमिष्यते । मनुष्यो वर्तते कश्चित्, कश्चित् पक्षी पशुस्तरुः ।। शिष्य के मन में संसार की विविधता को देखकर एक प्रश्न उभरा । उसने गुरु से पूछा-भंते ! सब जीव [आत्माएं] समान हैं, फिर कोई मनुष्य है तो कोई पक्षी। कोई पशु है तो कोई वृक्ष । यह नानात्व क्यों ? १६. अस्त्यात्मा शाश्वतस्तेन, गतिचक्र प्रवर्तते । अस्ति पुण्यं च पापं च, नानात्वं च गतेस्ततः ॥ आचार्य ने कहा-वत्स ! आत्मा शाश्वत है। उसकी कभी मृत्यु नहीं होती। वह एक भव से दूसरे भव में जाती है, उसका गतिचक्र चलता रहता है। वह कभी मनुष्य, कभी देव और कभी पशु-पक्षी के रूप में उत्पन्न होती है। इस नानात्व का मूल कारण है-पुण्य और पाप। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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