Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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२२
ब्रह्मचर्य को सिद्धि
६६. केवलं न निमित्तानि, साधनानि न केवलम् । भवेदेषां, ब्रह्मचर्यस्य सिद्धये ॥
सापेक्षता
ब्रह्मचर्य की साधना के लिए केवल निमित्तों से बचना, केवल साधनों को अपनाना- -दोनों अपूर्ण हैं । उसकी सिद्धि के लिए दोनों की सापेक्षता अनिवार्य है ।
प्रेक्षा: परा और अपरा
६७. अपरा तोषमायाति, प्रेक्षा संप्राप्य लौकिकम् । तु दूरदर्शित्वादलौकिकपदं
परा
व्रजेत् ॥
आलोक प्रज्ञा का
भंते ! साधुता कहां सार्थक होती है ?
वत्स ! जब मुनि पराप्रेक्षा में जीता है तब उसकी साधुता सार्थक होती है ।
भंते ! वह कैसे ?
वत्स ! प्रेक्षा के दो प्रकार हैं-अपरा और परा । अपराप्रेक्षा लौकिक है, वर्तमानदर्शी है । वह लौकिक वस्तुओं की संप्राप्ति में तोष मानती है । पराप्रेक्षा अलौकिक है, दूरदर्शी है । वह अलौकिक पद तक चली जाती है ।
महान् बनने का सूत्र
६८. यदिच्छसि गुरोर्भावं विवादं त्यज दूरतः । आग्रहेण विवादेन, लघुतां मानवो व्रजेत् ॥
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