Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 39
________________ २४ आलोक प्रज्ञा का कलाओं का ज्ञाता कौन ? ७१. जीवनं च कला पूर्णा, मृत्युः साप्यतिशायिनी। स कलां सकलां वेत्ति, रहस्यमनयोरपि । जीवन जीना एक पूर्ण कला है। मृत्यु उससे भी अधिक पूर्ण कला है। जो व्यक्ति जीवन और मरण-इन दोनों के रहस्य को जान लेता है, वह समस्त कलाओं का जानकार हो जाता है। धारणा को पुष्टि ७२. विषयेषु शरीरे च, मनश्चाञ्चल्यमश्नुते । ताभ्यां विरतिमापन्ने, धारणा स्थिरतां व्रजेत् ।। गुरुदेव ! धारणा के बिना स्मृति प्रखर नहीं होती। धारणा कैसे पुष्ट हो सकती है ? ___ वत्स ! कभी यह मन विषयों में चंचल होता है तो कभी शरीर के प्रति । जब इन दोनों से मन की विरति होती है तब धारणा स्थिर या पुष्ट होती है। देहस्थ : आत्मस्थ ७३. वेहस्था मानवाः केचिद्, केचिदात्मस्थिता जनाः । आचारे व्यवहारे च, भेदस्तेषामतो भवेत् ॥ भंते ! कुछ लोग आचार और व्यवहार में बड़े कुशल होते हैं तो कुछ उनमें कुशल नहीं होते । यह भेद क्यों ? Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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