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आलोक प्रज्ञा का
कलाओं का ज्ञाता कौन ?
७१. जीवनं च कला पूर्णा, मृत्युः साप्यतिशायिनी।
स कलां सकलां वेत्ति, रहस्यमनयोरपि ।
जीवन जीना एक पूर्ण कला है। मृत्यु उससे भी अधिक पूर्ण कला है। जो व्यक्ति जीवन और मरण-इन दोनों के रहस्य को जान लेता है, वह समस्त कलाओं का जानकार हो जाता है।
धारणा को पुष्टि ७२. विषयेषु शरीरे च, मनश्चाञ्चल्यमश्नुते ।
ताभ्यां विरतिमापन्ने, धारणा स्थिरतां व्रजेत् ।।
गुरुदेव ! धारणा के बिना स्मृति प्रखर नहीं होती। धारणा कैसे पुष्ट हो सकती है ? ___ वत्स ! कभी यह मन विषयों में चंचल होता है तो कभी शरीर के प्रति । जब इन दोनों से मन की विरति होती है तब धारणा स्थिर या पुष्ट होती है।
देहस्थ : आत्मस्थ ७३. वेहस्था मानवाः केचिद्, केचिदात्मस्थिता जनाः ।
आचारे व्यवहारे च, भेदस्तेषामतो भवेत् ॥
भंते ! कुछ लोग आचार और व्यवहार में बड़े कुशल होते हैं तो कुछ उनमें कुशल नहीं होते । यह भेद क्यों ?
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