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आलोक प्रज्ञा का
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वत्स ! कुछ लोग देहस्थ होते हैं-वे शरीर के स्तर पर जीते हैं। कुछ लोग आत्मस्थ होते हैं-वे आत्मा के स्तर पर जीते हैं। देह के स्तर पर जीने वालों से आत्मा के स्तर पर जीने वालों का आचार और व्यवहार भिन्न प्रकार का होगा।
अपना दर्शन अपने द्वारा
७४. ज्ञानं ममेन्द्रियाधीनं, जीवनं सामुदायिकम् ।
तत्रात्मनात्मनो दर्शः, कथं स्यात् सार्थकं प्रभो !॥
किसी शिविरार्थी ने अपने प्रेक्षाध्यानी गुरु से पूछा-प्रभो ! आप प्रतिदिन हमें 'संपिक्खए अप्पगमप्पएणं'-अपने द्वारा अपने आपको देखने का निर्देश देते हैं। सचाई यह है कि मेरा ज्ञान इन्द्रियों के अधीन है। जीवन सामुदायिक है। उस स्थिति में अपने आपको देखने का सूत्र कैसे सार्थक हो सकता है ? वहां तो दूसरो को देखने का सूत्र ही सार्थक होता है।
७५. प्रज्ञा नास्ति समुद्बुद्धा, तावत्परस्य दर्शनम् ।
इन्द्रियाणां स्वभावोऽयं, तत्र स्वार्थः प्रवर्तते ॥
गुरु ने कहा-वत्स ! जब तक प्रज्ञा नहीं जागती तब तक व्यक्ति दूसरों को देखता रहता है। यह इन्द्रियों का स्वभाव है। वहां स्वार्थ प्रवर्तित होता है ।
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