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आलोक प्रज्ञा का
कायोत्सर्ग
७६. जीवनं मंगलं भूयात्, प्रत्येक मंगलं दिनम् ।
कायोत्सर्ग यतो वेनि, सर्वदा मंगलं ततः ।।
देव ! आप दिन में बार-बार कायोत्सर्ग करते हैं। उसका उद्देश्य क्या है ?
वत्स ! प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि मेरा जीवन मंगलमय हो, मेरा प्रत्येक दिन मंगल में बीते। मैं इसीलिए कायोत्सर्ग करता हूं कि जिससे सदा मंगल ही मंगल हो ।
भेदरेखा कहाँ ?
७७. जीवने मरणे क्वास्ति, भेदरेखा समन्ततः ।
न लब्धयं मया स्वामिन् ! ततो जिज्ञासितं मम ॥
भंते ! मेरी एक जिज्ञासा है। जीवन और मृत्यु दो हैं। दोनो में भेदरेखा होनी चाहिए। वह कहां है ? अभी तक वह मुझे मिली नहीं है।
७८. समाधिर्जीवनं भूयोऽसमाधिर्मरणं भवेत् ।
जन्ममृत्युविभेदोऽयं, सम्मतोऽध्यात्मदर्शने ॥
शिष्य ! जन्म और मरण के बीच भेदरेखा है-समाधि । यह भेदरेखा खींची गई है समाधि के द्वारा। समाधि जीवन है और असमाधि मृत्यु । यह अध्यात्मदर्शन की सम्मति है।
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