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________________ आलोक प्रज्ञा का २७ धीर कौन ? ७६. लक्ष्याद् विचलितुं कर्तुं, भयं दर्शयते जनः । हीनभावं च निर्माति, तत्र धीरो न कम्पते ॥ मनोविज्ञान के अनुसार किसी को लक्ष्य से विचलित करने के लिए लोग उसे भय दिखाते हैं, फिर उसमें हीनभावना उत्पन्न करते हैं। किन्तु धीर पुरुष उनसे-भय और होनभावना से कभी विचलित नहीं होता। संघर्ष के बीज ८०. अदृश्यो वर्तते भावो, भाषा दृश्या ततः स्फुटम् । संघर्षबीजमाकीर्ण, प्रकृतौ कि सुजेज्जनः ? आर्यवर ! इस दुनिया में हमेशा संघर्ष चलता है। इसका क्या कारण है ? विनेय ! हमारी दुनिया में भाव अदृश्य हैं, वे कभी दिखाई नहीं देते । भाषा दृश्य है, वह सदा दिखाई देती है। इससे स्पष्ट है कि प्रकृति में संघर्ष के बीज बिखरे हुए हैं, तब बेचारा व्यक्ति क्या करे ? वहां संघर्ष तो होगा ही। उपादान और निमित्त ८१. सापेक्षे सत्युपादाने, निमित्तं सहकारकम् । निरपेक्षे ह्य पादाने, तदकिञ्चित्करं भवेत् ।। भंते ! उपादान और निमित्त दोनों कारण विद्यमान हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003161
Book TitleAlok Pragna ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages80
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size3 MB
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