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आलोक प्रज्ञा का
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धीर कौन ?
७६. लक्ष्याद् विचलितुं कर्तुं, भयं दर्शयते जनः ।
हीनभावं च निर्माति, तत्र धीरो न कम्पते ॥
मनोविज्ञान के अनुसार किसी को लक्ष्य से विचलित करने के लिए लोग उसे भय दिखाते हैं, फिर उसमें हीनभावना उत्पन्न करते हैं। किन्तु धीर पुरुष उनसे-भय और होनभावना से कभी विचलित नहीं होता।
संघर्ष के बीज
८०. अदृश्यो वर्तते भावो, भाषा दृश्या ततः स्फुटम् ।
संघर्षबीजमाकीर्ण, प्रकृतौ कि सुजेज्जनः ?
आर्यवर ! इस दुनिया में हमेशा संघर्ष चलता है। इसका क्या कारण है ?
विनेय ! हमारी दुनिया में भाव अदृश्य हैं, वे कभी दिखाई नहीं देते । भाषा दृश्य है, वह सदा दिखाई देती है। इससे स्पष्ट है कि प्रकृति में संघर्ष के बीज बिखरे हुए हैं, तब बेचारा व्यक्ति क्या करे ? वहां संघर्ष तो होगा ही।
उपादान और निमित्त
८१. सापेक्षे सत्युपादाने, निमित्तं सहकारकम् ।
निरपेक्षे ह्य पादाने, तदकिञ्चित्करं भवेत् ।।
भंते ! उपादान और निमित्त दोनों कारण विद्यमान हैं।
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