Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 62
________________ आलोक प्रज्ञा का भंते ! कर्मों का प्रयोजन कब होता है ? वत्स ! यदि आत्मा का कर्तृत्व न हो तो कर्मों का प्रयोजन ही क्या ? यदि आत्मा का कर्तृत्व माना जाता है तो कर्म का सिद्धांत साथक होता है । प्राधान्यं नैव कर्मणः । आत्मकर्तृत्ववादी हि, सिद्धान्त आत्मवादिनाम् ।। १३६. प्रधानमात्मकर्तुत्वं भंते ! प्रधानता कर्तृत्व की होती है अथवा कर्म की ? वत्स ! आत्मा वा कर्तृत्व ही प्रधान है, कर्मों की प्रधानता नहीं है । आत्मवादी दर्शनों का सिद्धांत है-आत्मकर्तृत्ववाद । कर्मवाद उसका अनुवर्ती सिद्धांत है । -ज्ञान या आचार ? मुख्य कौन १३७. ज्ञानं मुख्यं प्रभो ! यद्वा, मुख्य आचार उच्यते । द्वयोस्तुला न गौणत्वं, मुख्यत्वं कस्यचिद् भवेत् ॥ प्रभो ! ज्ञान मुख्य है अथवा आचार ? शिष्य ! दोनों तुल्य हैं । उनमें न किसी की मुख्यता है और न किसी की गौणता । १३८. ज्ञानमाचारशून्यं ४७ पत्रादिविकलस्तरुः । तु, आचारो ज्ञानशून्यस्तु, मूलशून्यः स कल्प्यते ॥ गुरुदेव ! क्या कोरा ज्ञान अथवा कोरा आचार आपकी दृष्टि में सम्मत है ? वत्स ! नहीं, आचारशून्य ज्ञान वैसा ही है जैसे पत्ते, फूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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