Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 67
________________ ५२ १५०. ज्ञानायाऽस्तु नमः पुण्यं, दर्शनाय नमोनमः । आनन्दाय नमस्तत् स्यात्, शक्तये मंगलं परम् 11 भन्ते ! नमस्कार किसे और क्यों करना चाहिए ? वत्स ! ज्ञान को नमस्कार, दर्शन को नमस्कार, आनन्द को नमस्कार और शक्ति को नमस्कार, क्योंकि ये सब उत्कृष्ट मंगल हैं । तंत्र : मंत्र १५१. तन्त्र मन्त्रेण संयुक्तं, स्वतन्त्रान् जनयेज्जनान् । तन्त्रं मन्त्रविहीनं तु, यन्त्राण्युत्पादयेच्चिरम् ॥ आलोक प्रज्ञा का विभो ! क्या तन्त्र का मन्त्रयुक्त होना अनिवार्य है ? वत्स ! हां, जो तन्त्र [ शासन ] मन्त्र -- मननशक्ति [ रहस्यपूर्ण शक्ति ] से संयुक्त होता है वह मनुष्यों को स्वतन्त्र बनाता है । जो तन्त्र मन्त्र शक्ति से विहीन होता है वह मनुष्य को यन्त्र बनाता है- - परतन्त्र बनाता है । ― तुलसी का गौरव १५२. गुरुर्भवेद् यदि गुरुः, तुलसीसदृशो भवेत् । हिताय येन शिष्याणां जीवनं सुसमर्पितम् ॥ } गुरु यदि गुरु हो तो वह आचार्य तुलसी जैसा हो, जिन्होंने शिष्यों के हित के लिए जीवन को सुसमर्पित किया है । १५३. गगनं गगनाकारं, सागरः सागरोपमः । गुरुगौरवसीमायां तुलसी तुलसीसमः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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