Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 78
________________ आलोक प्रज्ञा का अनुशासन को त्रिपदी १४. आत्मानुशासकः कश्चित् कश्चित् परानुशासकः । युक्तः, गणसन्ततिवृद्धये ॥ यानुशासको कोई मुनि आत्मानुशासी होता है, । जो अपने और पराए - दोनों पर वह गण-परम्परा की वृद्धि के लिए उपयुक्त माना जाता है । कोई परानुशासी होता अनुशासन कर सकता है गण का संवर्धन १५. शिष्याः प्रोत्साहनं नेयाः, आचार्यस्य सहिष्णुत्वमिदं संवर्धयेद् कार्य वर्धापनं वरम् । गणम || भन्ते ! गण का संवर्धन कैसे हो सकता है ? शिष्य ! आचार्य शिष्यों को प्रोत्साहन दें, उनके अच्छे कार्यों का वर्धापन करें । आचार्य की यह सहिष्णुता गण का संवर्धन करती है । प्रशिक्षण १६. उपायः परिवर्तस्य, प्रशिक्षणमिदं ध्रुवम् । प्रवृत्ताऽसौ गणे भिक्षोः, प्रशिक्षणपरम्परा ॥ Jain Education International ६३ गुरुदेव ! व्यक्ति के परिवर्तन का उपाय क्या है ? वत्स ! परिवर्तन का उपाय है— निरन्तर प्रशिक्षण का चलते रहना । प्रशिक्षण की यह परम्परा भैक्षवगण में चालू है । १७. चतुष्पदी विनीतस्याऽविनीतस्य विनिर्मिता । अनुशासनदीक्षायां सर्वे शिष्याः प्रशिक्षिताः ॥ 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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