Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 50
________________ आलोक प्रज्ञा का सुख-दुःख किसे ? १०१. सुखं वाञ्छति सर्वोऽपि, दुःखं कोऽपि न वाञ्छति । सुखार्थ यतते लोको, दुःखं तथाऽपि जायते ।। सभी सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता। मनुष्य सुख के लिए प्रयत्न करता है, फिर उसे दुःख क्यों प्राप्त होता है ? १०२. दुःखं मूर्छा मनुष्याणां, अमूर्छा वर्तते सुखम् । मूढो दुःखमवाप्नोति, अमूढः सुखमेधते ॥ प्राणियों के लिए मूर्छा दुःख है, अमूर्छा सुख है। जो मूढ है, उसे दुःख प्राप्त होता है। जो अमूढ है, उसे सुख उपलब्ध होता है। दुःख का चक्र १०३. लोकानां देहजं दुःखं, प्रधानं दृश्यते मतम् । दुःखमात्मविदां मुख्यं, क्रोधादीनां समुद्भवः ।। सांसारिक लोग शारीरिक दुःख को ही प्रधान मानते हैं । आत्मविद् व्यक्तियों की दृष्टि में मुख्य दुःख है-क्रोध आदि कषायों का आवेग । जो सहता है वही रहता है १०४. सत्ये यस्य धृतिः सिद्धा, मित्रमात्मा निजो ध्रुवम् । निग्रहः स्वात्मना स्वस्य, तस्याऽस्तित्वं सनातनम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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