Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 59
________________ ४४ आलोक प्रज्ञा का भाव और भाषा अमृतमय हो, ऐसा संयोग किसी महामना को ही प्राप्त होता है। तब आदमी जागता है १२७. संकल्पो नाम जाति, जाति मानवस्तदा । असंकल्पे क्व साफल्यं, क्व संकल्पे तथा परम् ॥ गुरुदेव ! मनुष्य कब जागता है ? शिष्य ! भीतर में जब संकल्प जागता है तब आदमी जागता है---उसकी कार्य-शक्ति जाग जाती है। बिना संकल्प के सफलता कहां है और संकल्प में असफलता कहां है ? दुलेभ : सुलम १२८. प्रमोदो दुर्लभो लोके, ईर्ष्याऽस्ति सुलभा नृणाम् । गुणे संभागिता नेष्टा, दोषे संभागिता प्रिया ।। प्रभो ! मनुष्य के लिए दुर्लभ क्या है ? सुलभ क्या है ? वत्स ! प्रमोद भावना--दूसरों की विशेषता देखकर प्रमुदित होना मनुष्य के लिए दुर्लभ है और ईर्ष्या सुलभ है। __ मनुष्य की प्रकृति विचित्र है। वह गुण में संभागी होना नहीं चाहता, दोष में संभागी होना उसे प्रिय लगता है। श्रुत की परम्परा १२६. अविच्छिन्ना चिरं भूयात्, श्रुतज्ञानपरम्परा । आचार्यस्येति दायित्वं, तथा चिन्ता तथा कृतिः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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