Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 53
________________ आलोक प्रज्ञा का राग : विराग ११३. समाजस्य परं तत्त्वं, राग इत्यभिधीयते । समाज समतिक्रान्तः, विरागो व्यक्तिमाश्रितः ॥ भन्ते ! समाज का परम तत्त्व क्या है ? शिष्य ! समाज का परम तत्व है-राग। जब व्यक्ति समाज-चेतना से हटकर अपनी ओर मुड़ता है तब उसके लिए विराग परम तत्त्व बन जाता है । ११४. विरागेण विना रागो, विकारान् वितनोत्यलम् । तेनादर्शो विरागः स्याद्, रागिणामपि देहिनाम् ॥ विरागशून्य राग विकार को बढाता है । अत: रागी व्यक्तियों के लिए भी विराग आदर्श होता है । श्रुत और समाधि ११५. तज्ज्ञानं न मतं ज्ञानं, समाधि व विद्यते । समाधिश्च कथं प्राप्यः, विना ज्ञानमनाविलम् ॥ शिष्य ने जिज्ञासा की--देव ! क्या समाधि के लिए ज्ञान आवश्यक है ? आचार्य ने कहा-हां, आवश्यक है। उस ज्ञान का ज्ञान नहीं माना जाता, जिसमें समाधि न हो। विशुद्ध ज्ञान के बिना समाधि कैसे प्राप्त हो सकती है ? तात्पर्य की भाषा में विशुद्ध ज्ञान ही समाधि है, मूर्छा या ज्ञानशून्यता समाधि नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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