Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ २३. पृष्टवान् कपिलः प्रश्नमन्तः शान्तमना अमुम् । कोटया तृप्तो भविष्यामि, स्वयं संबुद्धतां गतः ॥ राजपुरोहित का पुत्र कपिल राजा द्वारा मुंहमांगा धन दिए जाने की लालसा में उलझ गया । तृष्णा इतनी विशाल हो गई कि वह दो माशा सोने से करोड़ों तक पहुंच गया । उसने शान्तमन होकर अपने आप से प्रश्न पूछा- क्या मैं करोड़ों की सम्पदा पाकर तृप्त हो जाऊंगा ? उसे सही समाधान मिल गया और वह स्वयं संबुद्ध बन गया । आलोक प्रज्ञा का रूपान्तरण कैसे ? २४. शनैः शनैः अन्तरिच्छाकृतं क्वचित् प्रभावतः । स्वतः परोपदेशात् वा, व्यक्तित्वे परिवर्तनम् ॥ मनोविज्ञान की भाषा में व्यक्ति धीरे-धीरे बदलता है । कहीं वह परिवर्तन आन्तरिक इच्छा से होता है तो कहीं किसी के प्रभाव से । कहीं वह अपने आप होता है तो कहीं परोपदेश से । एक : अनेक २५. एकः समूहमध्यस्थः, समूह एकमाश्रितः । एकानेकविभेदोऽयं, व्यवहारे प्रवर्तते ।। एक व्यक्ति भीड़ में रहता हुआ एकाकी है और एक एकाकी होता हुआ भी भीड़ में है । यह एक और अनेक का भेद व्यवहारनय की दृष्टि से है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80