Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ आलोक प्रज्ञा का ५१. यथा यथा प्रवर्धते, समत्वभावसंस्तवः । तथा तथा विलीयतेऽभिमानभावना स्वतः ।। जैसे-जैसे समत्वभाव का परिचय विकसित होता है वैसेवैसे अहंकार की भावना स्वतः विलीन हो जाती है। कर्मणा जाति ५२. समाजो व्यक्तिसापेक्षः, जना विविधशक्तयः । कर्म शक्त्यनुरूपं स्यात्, तेन जातिः स्वकर्मणा ।। समाज व्यक्तिसापेक्ष होता है । व्यक्ति-व्यक्ति में अलग-अलग शक्तियां पाई जाती हैं। किसी में बुद्धि-कौशल, किसी में पराक्रम, किसी में सेवा और किसी में व्यावसायिक दक्षता होती है । उन शक्तियों-योग्यताओं के अनुरूप ही कर्म होता है। इसलिए जाति कर्मणा होती है, जन्मना नहीं । यज्ञ आदि का आध्यात्मिकीकरण ५३. इष्टसिद्धिरनिष्टस्य, निवारणमभीप्सितम् । तदर्थ कर्म धर्मोऽपि तदर्थ विद्यते नृणाम् ।। ५४. इष्टं नेकविधं तेषामनिष्टं चापि नेकधा । तेषामाध्यात्मिकं रूपं, निर्दोषं सम्मतं बुधैः ।। गुरुदेव ! भारतीय परम्परा में यज्ञ, तीर्थस्नान आदि को महत्त्व क्यों मिला? वत्स ! मनुष्य इष्ट की सिद्धि और अनिष्ट के निवारण को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80