Book Title: Alok Pragna ka
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 22
________________ आलोक प्रज्ञा का २०. अस्ति पुद्गलसाम्राज्यमेकच्छत्रमितस्ततः । एषाऽस्ति महती बाधा, योगक्षेमस्य संविदः ॥ हमारे जीवन के चारों ओर पुद्गल का एकछत्र साम्राज्य है। बोलना, खाना, सुनना और श्वास लेना-सब पुद्गल ही पुद्गल है। वह विजातीय है। योगक्षेम की प्राप्ति में यह सबसे बड़ी बाधा है। २१. योगक्षेमस्य संवित्तः, उपायोऽसौ निदर्शितः । न पुद्गलोऽस्मि चिप, इति भेदस्य साधना ॥ गुरुदेव ! क्या योगक्षेम की प्राप्ति का कोई उपाय है ? वत्स ! हां, उपाय है । वह है तीव्र अभीप्सा। उसकी प्रक्रिया है-'मैं पुद्गल नहीं हूं, चिद्रूप हूं'--इस भेदविज्ञान की साधना। कपिल को संबोधि २२. प्रश्नः प्रश्नः पुनः प्रश्नः, स्वं प्रति प्रतिपद्यताम् । उत्तरे परिवर्तेत, स्वयं प्रश्नः समाहितः ॥ भंते ! प्रश्न का समाधान कैसे हो सकता है ? वत्स ! जिस प्रकार कपिल ने स्वयं से प्रश्न पूछा था उसी प्रकार तुम भी प्रश्न पूछो। पुनः पुनः प्रश्न पूछो। अपने आप से पूछो। प्रश्न उत्तर में बदल जाएगा। वह अपने आप समाहित हो जाएगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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