Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 17
________________ आत्मा ही निष्पाप है और उपयोगहीन आत्मा ही पापपूर्ण है ।' अर्थात् पाप एवं पुण्य इन दोनों के कारणों को खोजने के लिये बाहर हट जाने की जरूरत नहीं है, वे दोनों कारण स्वय आत्मा में ही मौजूद हैं। इस प्रकार यह आत्मा ही स्वयं अपने पापपुण्यों का कर्ता एवं भोक्ता है; न कोई इसे कुछ लेता देता है और न यह किसी को कुछ देता-लेता है इत्यादि प्रकार मे ज्यों २ गहरा विचार करते जाते हैं त्यो २ नये २ आत्मानुभव स्वयं आते जाते हैं और यही इस ग्रन्थ की एक विशिष्टता है कि ग्रन्थकारने तत्त्व का बाह्य विस्तृत स्वरूप न कह कर उसको आत्मा या कर्म का ही वर्णन किया है उसके ऊपर विशद विचार श्रेणी फैलाने का काम उसने विचारक वाचकों पर ही छोड़ दिया है । (२) भोजनपान ग्रहण करने में भी सचित्त खानेका अपवाद नहीं हैं क्योंकि निर्जीव पानी एवं आहार की प्राप्ति दुःशक्य भले ही हो किन्तु वह अलभ्य तो अवश्य नहीं है । इसी लिये त्यागी के तक का भी सर्वथा निषेध किया जाते समय छूने रास्ते में यदि नदीनाला कहा गया है कि साधु, परिस्थिति में से लये सचित्त आहारपनी को गया है किन्तु भिक्षा के लिये या जाय तो क्या करे ? उस यदि दूसरा और कोई मार्ग न हो तो, उनमें और भिक्षा लेकर लौट अने पर त क्षण हो पापसे निवृत्त हो । ध्य न देने की बात यह है कि उस परिस्थिति में चलने का निषेध नहीं किया क्योंकि वैसी छूट देने में ही संयम का संरक्षण है । पृथ्वी पर जगह जगह वि र कर संयमधर्म का प्रचार जाकर पार हो जाय प्रायश्चित लेकर उस * देखो दशवैका लक सूत्र का अध्ययन 2 1 (१३)

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