Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 16
________________ क्रियाए करनी पड़ती हैं । इन आवश्यक मियाओं में जहां २ अनिवार्य हिंसाप्रसंग आ जाते हैं वहीं २ अपवाद मार्ग मी है ही जैते: (१) चलने में वायुविक जावों की हिंसा होती है किन्तु इस पार की भी अपेक्षा साधु के आलस्य की वृद्धि होना संयम के लिये और नी अधिक हानिकर है, इसी लिये शास्त्र में कहा है कि “ उपयोगपूर्वक उन क्रियाओं को करे तो पापकर्नका बंधन नहीं होता है। अर्यात् 'पापनिया' की मी अपेक्षा उपयोगहीनता' को अधिक पापला माना है। इस तरह प्रकारन्तर से उपयोग का महत्व बताकर साधु को वह उतकता रखने का निर्देश किया है जिस सतर्कता के कारण पापल्प एक मी क्रिया-भले ही वह मानतिक हो, वाचिक हो या कायिक हो-कभी हो ही नहीं सकती । साय हो साय, सतर्कता का निर्देश करके ग्रंथकार ने एक बहुत ही सूक्ष्म वात का, जो जैनधर्म को एक खास विशिष्टता है उसकी तरफ मी वाचक का ध्यान आकृट किया है । वह यह बात साधक के मन पर ठसा देना चाहते हैं कि 'कोई अमुक क्रिया स्वयमेव पापल्प नहीं है, पाप यदि कुछ है तो . वह है आत्मा की उपयोगहीनता । सतर्क आत्मा कोई भी क्रिया क्यों न करे, उसे पापका बंध नहीं होता और उपयोगरहित आत्मा कुछ मी क्यों न करे फिर मी वह पार का भागी है क्योंकि उसे खबर ही नहीं है कि वह क्या कर रही है ऐसी आमा भूल में पार ही कर सकती है । जैनधर्म में उपयोग का . महत्त्व इसी दृष्टि से है और वह बड़ा ही विलक्षण है । इसी दृष्टि से ग्रन्थकारने इस ग्रन्य में स्पष्ट कह दिया है कि 'उपयोग सहित

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