Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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विलोयपण्णत्तिका गणित
गणितीय निरूपण प्राप्त होना था। यूनान में गोलके सम्बन्धमें (पायथेगोरियन युग से अथवा उसके बाद के सूत्र की ) प्ररूपणा है, तथा जैनाचार्यों द्वाग उसका उपयोग न करना इस बातका सूचक है कि उन्होंने बो कुछ किया वह उनकी स्वतः की मौलिक प्रतिभाका अंशदान था जिसके बहुत से उदाहरण धवला टीका तथा तिलोय-पण्णचीमें बिखरे पड़े हैं। दृष्टिवाद अंगके आधार पर जम्बूदीपकी परिधिका उल्लेखितरूप में कथन ही इस बात का सूचक है कि तिलोय-पण्णत्तिकी संरचनाके पूर्व ही, १० का उपयोग के लिये हो चुका था। तथा ख ख पदसंसस्स पुढं का गुणकार २३.५ निश्चित करना एक अति कठिन गणनाके आधार पर प्राप्त हुआ होगा । यदि यह गणना बौद्धायन के शुल्व सूत्र कालीन है तो बौद्धायन द्वारा निश्चित T= ३°०८८, का मान इससे स्थूल है । यूनान में, आर्कमिडीज़ का प्रयत्न अति प्रशंसनीय माना जाता है। उसने 1 का मान इस रूपमें निश्चित किया था:
तथापि, वीरसेनाचार्य द्वारा उपयोग में लाया गया सूत्र, 'व्यासं षोडशगुणित........."चीन के सुशंग चिह ( Tsu-chung-ohih) के द्वारा दिये गये के प्रमाण से मिलता जुलता है, जो षोडश सहित को निकाल देने पर एक सा हो जाता है। वास्तव में यह अत्यंत सूक्ष्म प्रमाण है जहाँ = १५५%३.१४१५९३ आदि प्राप्त होता है। इसकी विधि चीन में प्राप्य नहीं है, तथापि उसका उद्गम वीरसेनाचार्य द्वारा दिये गये सूत्र में निबद्ध है। जहां वीरसेन ने यह सूत्र नवीं सदी में उलेखित किया है, वहां सुशंग चिहने प्रायः ४७६ ईस्वी पश्चात् में लिया है। इससे प्रतीत होता है, कि चीनियों ने
१६ व्यास+१६.
+ ३ (ब्यास)- परिधि
सूत्र को प्रथम पद में से १६ निकाल कर सुधार किया होगा। अथवा, भारत में वह सूत्र चीन से लिया गया हो, बो १६ अधिक होने से गलत रूप में सूत्र बद्ध हो गया हो। यह एक ऐतिहासिक महत्व रखता है तथा चीन से गणितीय सम्बन्ध की परम्परा स्थापित करता है।
. तिलोय-पण्णची के चतुर्य अधिकार में गाथा १८० और १८१ में दिये गये स्त्र अति महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। ये सूत्र, जीवा और धनुष का प्रमाण निकालने के लिये हैं, गणना/१० के आधार पर इन सूत्रों की संरचना का प्रमाण मिलता है। जीवा के विषय में बिलकुल ऐसा ही स्त्र,
जीवा -
[(व्यास)-(व्यास - बाण)२]
रूप में, बेबीलोन में अभिलेखों के आधार पर २६०० वर्ष ईस्वी पूर्व उपस्थित होना, हमें आचर्य में सल देता है। वहां का मान निश्चित रूप से ३ होना स्वीकृत हो चुका है। वहां पायथेगोरियन
१ सम्बदीपप्रशस्ति में कुछ मिन मान है। भिन्नता हाथ प्रमाण से प्रारम्भ होती है और इसके पश्चात् प्रमाण का कथन नहीं है (१-२३)। २ति.प.४,५५-५६. ३Coolidge P. 16. Coolidge P. 61.
4 Coolidge P. 61. .६ इस सूत्र की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में डा. अवधेशनारायणसिंह के विचार देखने योग्य हैं जो उन्होंने "वर्णी अभिनन्दन ग्रंथ", सागर, (वीर नि.सं. २४७६ ) में प्रकाशित अपने "भारतीय गणित के इतिहास के बैन-लोत" में पृष्ठ ५०३ पर व्यक्त किये हैं। ।
७ बम्बूद्वीपप्राप्ति में इस रूप में सूत्र मिलता है-बीवा =V बाण (विष्कम्भ-बाण) २-२३, ६-९. ८Coolidge P. 7.
Coolidge P. 6.
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