Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र की जीवा ९७४८-१२/१९ योजन लम्बी है । उसका धनुष्य-पृष्ठ-दक्षिणार्ध भरत के जीवोपमित भाग का पृष्ठ भाग दक्षिण में ९७६६-१/१९ योजन से कुछ अधिक है । यह परिधि की अपेक्षा से वर्णन है। भगवन् ! दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उसका अति समतल रमणीय भूमिभाग है । वह मुरज के ऊपरी भाग आदि के सदृश समतल है । वह अनेकविध पंचरंगी मणियों तथा तृणों से सुशोभित है । दक्षिणार्ध भरत में मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! दक्षिणार्ध भरत में मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊंचाइ, आयुष्य बहुत प्रकार का है । वे बहुत वर्षों का आयुष्य भुगतते हैं । आयुष्य भुगतकर कई नरकगति में, कईं तिर्यंचगति में, कईं मनुष्यगति में तथा कईं देवगति में जाते हैं और कईं सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिवृत्त होते हैं एवं समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। सूत्र-१३ भगवन् ! जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत कहाँ है ? गौतम ! उत्तरार्ध भरतक्षेत्र के दक्षिण में, दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के उत्तर में, पूर्व-लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिम-लवणसमुद्र के पूर्व में है । यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है । अपने पूर्वी किनारे से पूर्व-लवणसमुद्र का तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमीलवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है । वह पच्चीस योजन ऊंचा है और सवा छह योजन जमीन में गहरा है । यह पचास योजन लम्बा है । इसकी बाहा-पूर्व-पश्चिम में ४८८-१६/१९ योजन है । उत्तर में वैताढ्य पर्वत की जीवा पूर्वी किनारे से पूर्व-लवणसमुद्र का तथा पश्चिम किनारे से पश्चिम लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है । जीवा १०७२१२/१९ योजन लम्बी है । दक्षिण में उसकी धनुष्यपीठिका की परिधि १०७४३-१५/१९ योजन है । वैताढ्य पर्वत रुचक-संस्थान-संस्थित है, वह सर्वथा रजतमय है । स्वच्छ, सुकोमल, चिकना, घुटा हुआ-सा, तराशा हुआ-सा, रज-रहित, मैल-रहित, कर्दम-रहित तथा कंकड़-रहित है । वह प्रभा, कान्ति एवं उद्योत से युक्त है, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है । वह अपने दोनों पार्श्वभागों में दो पद्मवरवेदिकाओं तथा वन-खंडों में सम्पूर्णतः घिरा है। वे पद्मवरवेदिकाएं आधा योजन ऊंची तथा पाँच सौ धनुष चौड़ी हैं, पर्वत जितनी लम्बी हैं । वे वन-खंड कुछ कम दो योजन चौड़े हैं, कृष्ण वर्ण तथा कृष्ण आभा से युक्त हैं । वैताढ्य पर्वत के पूर्व-पश्चिम में दो गुफाएं हैं। वे उत्तर-दक्षिण लम्बी तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ी हैं । उनकी लम्बाई पचास योजन, चौड़ाई बारह योजन तथा ऊंचाई आठ योजन है । उनके वज्ररत्नमय-कपाट हैं, दो-दो भागों के रूप में निर्मित, समस्थित कपाट इतने सघन-निश्छिद्र या निबिड हैं, जिससे गुफाओं में प्रवेश करना दुःशक्य है । उन गुफाओंमें सदा अंधेरा रहता है। वे ग्रह, चन्द्र, सूर्य तथा नक्षत्रों के प्रकाश से रहित हैं, अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं । उन गुफाओं के नाम तमिस्रगुफा तथा खंडप्रपातगुफा हैं । वहाँ कृतमालक तथा नृत्यमालक-दो देव निवास करते हैं । वे महान् ऐश्वर्यशाली, द्युतिमान्, बलवान्, यशस्वी, सुखी तथा भाग्यशाली हैं, पल्योपमस्थितिक हैं । उन वनखंडों के भूमिभाग बहुत समतल और सुन्दर है। वैताढ्य पर्वत के दोनों पार्श्व में दश-दश योजन की ऊंचाई पर दो विद्याधर श्रेणियाँ हैं । वे पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी हैं । उनकी चौड़ाई दश-दश योजन तथा लम्बाई पर्वत जितनी ही है । वे दोनों पार्श्व में दो-दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो-दो वनखंडों से परिवेष्टित हैं । वे पद्मवरवेदिकाएं ऊंचाई में आधा योजन, चौड़ाई में पाँच सौ धनुष तथा लम्बाई में पर्वत-जितनी ही हैं । वनखंड भी लम्बाई में वेदिकाओं जितने ही हैं। भगवन् ! विद्याधर-श्रेणियों की भूमि का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उनका भूमिभाग बड़ा समतल रमणीय है । वह मुरज के ऊपरी भाग आदि की ज्यों समतल है । वह बहुत प्रकार के मणियों तथा तृणों से सुशोभित है । दक्षिणवर्ती विद्याधरश्रेणी में गगनवल्लभ आदि पचास विद्याधर हैं- | उत्तरवर्ती विद्याधर श्रेणि में रथनुपूरचक्रवाल आदि आठ नगर हैं- । इस प्रकार दक्षिणवर्ती एवं उत्तरवर्ती दोनों विद्याधर-श्रेणियों के नगरों की संख्या ११० हैं । वे विद्याधर-नगर वैभवशाली, सुरक्षित एवं समृद्ध हैं । वहाँ के निवासी तथा अन्य भागों से आये हुए व्यक्ति वहाँ आमोद-प्रमोद के प्रचुर साधन होने से प्रमुदित रहते हैं । यावत् वह प्रासादीय, दर्शनीय मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 7

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 105