Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Churni
Author(s): Sthaviracharya, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 28
________________ भगवतीचूर्णिः भंगा । एवं आणा-पाणु-पज्जत्तीए वि । भासापजत्ती बेइंदियादिसु तीसु तिभंगो । पंचेंदिएसु वण्णस्स तियभंगो । आहार-पजत्तीए एगत्ते सिय सव्वत्थ पुहुत्ते सिय सव्वत्थ, पुहुत्ते जीव-एगेंदिएसु णिचं विग्गहगतिसंभवातो अभंगगं सपदेसा य अपदेसा य । सेसपदेसु गतिविरहातो छब्भंगा । सपदेसव्व अपदेसव्वादि । ह्र ।४। सरीर-इंदिय-आणापाणु-भास-मण-अय एगत्ते सिय पुहत्ते जीव-एगेंदिएसु अभंगगं । उववाता विरहातो बेंदिय-तेंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियतिरिएसु अपजत्तया विरहे त्ति कट्ट, आगमणेण पुहरहा तेण तिय भंगो । मणुय-देव-णेरइएसु कदायि अपज्जत्तयाण होज्जत्तेण छब्भंगा ६। भासा अपजत्तीए य, जीवपदे तिण्णि सपदेस निच्चं संभवातो एगो अयदेसो बहुया वा बेंदियादिसु भासा पंचिंदिएसु मणो । जो य अप्पप्पणो कालो तत्थ पढमसमए अपदेसो । बितियादिसु सपदेसा हवंति । भावा संवरो पच्चक्खाणं इतरोऽपच्चक्खाणं । देसेक्कदेसविरती । देसपच्चयपच्चक्खाणं रतिया देवेसु णत्थि य । तिरिय-मणुएसु तिण्णि वि जाणं ति । पंचेंदिया तिविहस्स वि । विगलिं(दि)या अपच्चक्खाणं जाणं ति । जहा-पढम दंडतो निव्वत्तियासु ते तिविहा वि जहासंभवं च जाणेज्जा ॥छ। फु॥६ ह्व ४॥ तमुकाय-तमस्काय । अरुणवरुस्स दीवस्स बाहिरवेदिकान्तात् समुद्रं बातालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता उवरिजलं ता एगपदेसागाससेणीए ।१३.२१||छ।। छविहे आउस्स बंधे । जाति नाम एगिंइदयादि तृ(५) गति ह्व(४), ठिति-स्थितिः, कालपरिमाणं। ओगाह-ओगाहणं सरीरपरिमाणं पदेसा कम्मपोग्गलगहणं अणुभागो सुभासुभवेदणा विया । को णिहत्तणिहत्ताऊय ? णिउत्त णिउत्ताऊ य, एतेहिं णाम अप्पसहिएहिं छणिज्जंति ह्व(४) फु (६)। चउवीसा दंडएण एतेहिं चेव चउहिं चत्तादीहिं । गोत्त-अप्पविसेसिएहिं चत्तारि दो वि अट्ठ दंडगा । अहुणा मीसएण नाम-गोत्तेण निहत्तणिहत्ताआऊ णिउत्तणिउत्ता आऊ य चत्तारि छ।। एक्कत्थ चेव जीवा णिहत्ता । अण्णत्थ आऊयाइं एतेसु हाणेसु ॥छ।। अविशुद्धलेश्यो अविशुद्धविभंगज्ञानः । असमोहतो-अणुवउत्तो अण्णं अविसुद्धं विसुद्धं वा समोहतो उवउत्तो, अविसुद्धविसुद्धं, समोहता समोहतो उवउत्ताणुवउत्तो । तच्चेव सव्वमिच्छादसण दूसितणाणातो ण जाणंति । एवं विसुद्धलेस्सो असमोह समोहतेहिं अविसुद्धा सुद्धा । छच्चारेज्जा दो वज्जिय चतुसु जाणति णाणसंसुद्धे । ॥छ। Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122