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आगम साहित्य जैन आगम जैन दर्शन की या भारतीय संस्कृति की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व की अनमोल सम्पदा है। इसमें मात्र जैन दर्शन की मान्यताओं को ही पुष्ट नहीं किया गया है, अपितु इसमें सम्पूर्ण विश्व का खगोल, भूगोल और विज्ञान विषय भी समाविष्ट है। इसका बाह्य कलेवर जितना विशाल एवं विराट नजर आता है, चिन्तन भी उतना ही विशाल, गहरा एवं सूक्ष्म है। जैनागम का लक्ष्य किसी दर्शन का खण्डन या निरसन न होकर मात्र वस्तु स्वरूप का यथार्थ अवलोकन है।
इन जैनागमों के प्रणेता न तो दार्शनिक थे, न बौद्धिक । न राज्याश्रित थे, न प्रसिद्धि इच्छुक । ऐसा भी नहीं है कि जैनागम किसी व्यक्ति विशेष की धरोहर है। जैन दर्शन की यह स्पष्ट मान्यता है कि जब कोई आत्मा-विशेष अनादिकालीन ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाती कर्मों (जिनसे आत्मा के अनन्त गुणों का घात होता है) का क्षय कर लेता है, अपने प्रचण्ड पुरुषार्थ से आत्मा की मलीनता को सम्पूर्ण धो देता हैं, राग-द्वेष का सम्पूर्ण क्षय कर लेता हैं, उत्कृष्ट साधना के बल से विकार मुक्त होकर गुण स्थानक का क्रमश: आरोहण करते हुए अनन्तज्ञान/केवलज्ञान को उपलब्ध होता है, तब वह सर्वज्ञ कहलाता हैं। इस सर्वज्ञता की स्थिति में आत्मा की सुषुप्त समस्त शक्तियाँ शत-प्रतिशत उद्घाटित हो जाती हैं। ऐसे सर्वज्ञ केवलज्ञानी परमात्मा के वचन ही आप्त वचन अथवा आगम कहलाते हैं क्योंकि केवलज्ञानी परमात्मा के वचन ही निर्दोष हो सकते हैं। जब तक आत्मा राग-द्वेष युक्त है, तब तक उसका कथन न तो निर्दोष हो सकता है और न अविसंवादी हो सकता है। अविसंवादी अर्थात् पूर्वापर विरोध से रहित।
उन तीर्थंकर केवलनानी परमात्मा की जनकल्याणकारिणी, प्राणीमात्र के संबोध के लिये बही वाणी रूपी अमृतधारा को महान, प्रज्ञावान गणधर भगवन्त अपनी प्रखर प्रतिभा से द्वादशांगी के रूप में ग्रथित करते हैं और वहीं आगम कहलाते हैं।
अत्थं भारसइ अरहा, सुत्तं गुंथंति गणहरा निउणं ।
सासणस्स हियट्ठाए, तओ सूत्तं पवत्तइ ।।' अरिहन्न परमान्मा अर्थ रूपी वाणी का प्रवचन करते हैं तथा शासन के हित के लिये गणधर भगवन्त उसे सूत्रबद्ध करते हैं।
जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन / 39
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