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अन्तर्गत आती है, क्योंकि यही त्रिपदी से उद्भूत है । त्रिपदी के अतिरिक्त जिनका भी निर्माण स्वतन्त्र रूप से होता है, वे समस्त रचनाएँ गणधरकृत हो या स्थविरकृत, अंगबाह्य कहलाती हैं ।
स्थविर भी दो प्रकार के होते हैं - सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी और दशपूर्वी । सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी से तात्पर्य है कि वे चौदह पूर्वधर होते हैं । वे सूत्र और अर्थ रूप से सम्पूर्ण द्वादशांगी के ज्ञाता होते हैं। उनके द्वारा कथित अथवा लिखित कोई भी वाक्य मूल जिनागम के विरूद्ध नहीं होता । बृहत्कल्पभाष्य" में उनके लिये कहा जाता है कि जो कुछ तीर्थंकर परमात्मा कहते है, उसी को श्रुतकेवली भी कह सकते हैं । श्रुतकेवली और तीर्थंकर केवली में ज्ञान की अपेक्षा से कोई भेद नहीं होता । जिस तत्त्व और सत्य को तीर्थंकर अपने ज्ञान द्वारा प्रत्यक्ष अनुभूत करते हैं, उसी तत्त्व को श्रुतकेवली परोक्ष रूप से श्रुतज्ञान द्वारा जानते हैं। इनके वचन की प्रामाणिकता का महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि चौदह पूर्वधारी या दश पूर्वधारी श्रुतकेवली नियमतः सम्यकदृष्टि ही होते हैं । 10
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आगमों की प्रामाणिकता
'तमेव सच्चं निसंकं जं जिणेहिं पवेइयं " यह वाक्य चूँकि उनके रोमरोम में रमा हुआ होता है अतः ये चौदह या दश पूर्वधर जो भी निरूपण करते हैं, वह सम्पूर्णतः सत्य तथा श्रद्धा से स्वीकार्य होता है। श्रुतकेवली और तीर्थंकर केवली में इतना ही भेद है कि श्रुतकेवली का ज्ञान परत: प्रमाण है और तीर्थंकर का ज्ञान स्वत: प्रमाण है। श्रुतकेवली का ज्ञान इसलिये प्रामाणिक है कि वह परमात्मा द्वारा प्ररूपित द्वादशांगी की कसौटी पर कसा हुआ होता है।
इससे यही फलितार्थ होता है कि वही ज्ञान प्रामाणिक है, जो परमात्मा द्वारा प्ररूपित द्वादशांगी के अर्थ का अनुसरण करता है । जो विपरीत है, वह अप्रामाणिक माना जाता है । सम्पूर्ण ज्ञान का मुख्य स्रोत ही यह मूल द्वादशांगी है । दश पूर्व या इससे अधिक के ज्ञानी कभी द्वादशांगी के विरूद्ध प्ररूपणा कर ही नहीं सकते और इसलिये इनके द्वारा रचित एवं कथित श्रुत सम्यक् श्रुत कहलाता है । दश से कम पूर्वों के ज्ञाता स्थविरों द्वारा रचित श्रुत अनिवार्यतः सम्यक् नहीं होता। वह सम्यक् हो भी सकता है और नहीं भी ।
46 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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