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वर्धमान रहे। इसके पश्चात् विभिन्न कृतवादों का तथा स्वमत प्रशंसकों का वर्णन करते हुये शास्त्रकार ने इन्हें प्रावादुकों के रूप में उल्लिखित किया है।
__ चतुर्थ उद्देशक में परवादियों की असंयमी गृहस्थों के आचार के साथ समानता बताते हुये अन्त में अविरतिरूप कर्मबन्धन से बचने के लिये अहिंसा, समता आदि स्वसमय (सिद्धान्त) का प्रतिपादन किया गया है।'
इस अध्ययन में वर्णित विभिन्न वाद संक्षेप में इस प्रकार है -
1. पंचमहाभूतवाद - इस वाद के अनुसार पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा आकाश इन पाँचों के संयोग से जीवात्मा की उत्पत्ति तथा इन पाँचों के विनाश से जीव का विनाश हो जाता है।
2. एकात्मवाद - के अनुसार जैसे एक ही पृथ्वीपिण्ड नानारूपों में दिखाई देता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा नानारूपों में दिखायी देता है, परन्तु वह आत्मा एक ही है। ___ 3. तज्जीव-तच्छरीरवाद - वही जीव है और वही शरीर है अर्थात् शरीर ही जीव है। इससे भिन्न किसी आत्मतत्त्व का अस्तित्व नहीं है।
4. अकारकवाद - के अनुसार आत्मा कर्मों का अकर्ता होने पर भी भोक्ता है। इस मत में आत्मा न स्वयं किसी क्रिया को स्वतन्त्र करता है, न करवाता है। इस प्रकार वह अकारक है।
5. आत्मषष्ठवाद - इस जगत में अचेतन पंचमहाभूत तथा सचेतन छठा आत्मा है। इस मत में लोक तथा आत्मा को शाश्वत तथा नित्य माना गया है। तथा पूर्वोक्त पदार्थ सहेतुक और अहेतुक दोनों प्रकार से कभी विनष्ट नहीं होते। तथा असत् की कभी उत्पत्ति नहीं व सत् का कभी विनाश भी नहीं होता।
6. क्षणिकवाद - यह मत दो रूपों में प्रतिपादित है। प्रथम प्रकार के मतवादी क्षणमात्र स्थिर रहने वाले रूप-वेदना-संज्ञा-संस्कार तथा विज्ञान रूप 5 स्कन्ध मानते है। इनसे भिन्न-अभिन्न. सख-द:ख, इच्छा-द्वेष व ज्ञानादि के आधारभूत आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं मानते है। जबकि द्वितीय मतवादियों के अनुसार पृथ्वी, अप, तेज तथा वायु ये चारों धातु जगत का धारण पोषण करते है। ये जब एकाकार होकर भूतसंज्ञक रूप स्कन्ध बन जाते है, तब इनकी जीव संज्ञा होती है।
अन्तिम गाथाओं में सांख्यादि मत की निस्सारता बताते हुये शास्त्रकार कहते है पंचभूतात्मवादी से लेकर चातुर्धातुवादी पर्यन्त सभी दर्शन अपने मत 104 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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