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के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान अर्थात् उस शरीर, गति, पर्याय या योनि को छोड़कर दूसरे शरीर, दूसरी योनि या गति को प्राप्त कर सकेगा। आत्मा का अस्तित्व पृथक्-पृथक् स्वीकारने पर ही ये सब बातें घटित होती है, क्योंकि कोई सुखी, कोई दु:खी, कोई धनी तो कोई निर्धन, ये विभिन्नताएँ प्रत्यक्ष दृष्टिगत होती है। प्रत्येक प्राणी के अनुभव से सिद्ध सुख-दुःख रूप फलभोग को हम झुठला नहीं सकते। आयु का क्षय होने पर प्राणी इस शरीर और भव को छोड़कर अन्य शरीर और भव में चले जाते है तथा कई व्यक्तियों को अपने पूर्व जन्म का स्मरण भी हो जाता है । इस अनुभव को भी हम मिथ्या नहीं कह सकते। इस प्रकार आत्मा का पृथक् अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर पंचभूतात्मवाद, एकात्मवाद, तज्जीव-तच्छरीरवाद, पञ्चस्कन्धवाद या चातुर्धातुकवाद आदि वादों का खण्डन हो जाता है । "
जैन दर्शन के अनुसार भी आत्मा अनेक, पृथक्-पृथक्, स्वकृत सुखदुःख का भोक्ता तथा नाना गतियों में गमानगमन करने वाला है। फिर शास्त्रकार ने नियतिवाद के खण्डन का उपक्रम क्यों किया ? इसका समाधान सूत्रकृतांग इस प्रकार किया गया है कि उपरोक्त कथन में नियतिवादी मान्यता अंशत: सत्यस्पर्शी है। परन्तु जब वे आगे यह कहते है कि प्राणियों द्वारा भोगा जाने वाला सुख-दुःख न स्वकृत है, न परकृत अपितु वह एकान्त नियतिकृत है, यह कथन उनके एकान्त मिथ्याग्रह को सूचित करता है।
यहाँ गाथा में कारण में कार्य का उपचार करके दुःख शब्द से दुःख का कारण ही कहा गया है। दुःख शब्द उपलक्षण है, इसलिये इससे सुख आदि अन्य बातों को भी ग्रहण कर लेना चाहिये । तात्पंयार्थ यह है कि जीवों को जो सुखदुःख का अनुभव होता है, वह उनके उद्योग रूप कारण से उत्पन्न किया हुआ नहीं है। यदि अपने-अपने उद्योग के प्रभाव से सुख - दुःखादि की प्राप्ति होती है, तब तो सेवक, किसान और वणिक् आदि का उद्योग एक सरीखा होने पर भी उनके फल में विसदृशता क्यों देखी जाती है ? जबकि जगत में ऐसा विरोध देखा जाता है कि किसी सेवक को विशिष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती, तो किसी वणिक् को उत्तम फल की प्राप्ति होती भी है, तो किसी किसान को पुरुषार्थ के अनुरूप फल नहीं मिलता। इससे सिद्ध होता है कि व्यक्ति को सुख - दुःख का फल पुरुषार्थ से नहीं मिलता ।
270 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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