Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 398
________________ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय ये चारों असंख्य प्रदेशी है, जबकि आकाशास्तिकाय अनन्त प्रदेशी है।। ठाणं में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश तथा एक जीव- इन चारों का प्रदेशपरिमाण एक समान बताया गया है।' आकाशास्तिकाय के भेद ___ आकाशास्तिकाय का लोकाकाश तथा अलोकाकाश इन दो भागों में विभाजन जैन दर्शन की मौलिक स्थापना है। भगवती तथा ठाणं में भी आकाश के ये दो भेद बताये गये है। बृहद् द्रव्य संग्रह के अनुसार जो धर्म-अधर्म, जीव, पुद्गल को अवकाश दे वह लोकाकाश और उस लोकाकाश से बाहर अलोकाकाश है।'' अलोकाकाश में न जीवद्रव्य है, न अजीव द्रव्य है। वह एक अजीव द्रव्य देश है, अगुरुलघु है तथा अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त है। अनन्त भाग कम सर्वाकाश रूप है।" लोकाकाश तथा अलोकाकाश का विभाजक तत्त्व है- धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय। ये जिस आकाश खण्ड में व्याप्त है, वहाँ गति और स्थिति होती है। जहाँ गति और स्थिति है, वहाँ जीव और पुद्गल का अस्तित्व है। अत: जीव, पुद्गल, धर्म तथा अधर्म से व्याप्त आकाश खण्ड लोकाकाश है। शेष आकाश खण्ड में किसी भी प्रकार के द्रव्य का अस्तित्व न होने से उसकी संज्ञा अलोकाकाश है। लोकाकाश ससीम है तथा अलोकाकाश असीम है।" धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय की उपयोगिता __ जीव की धर्मास्तिकाय में गति तथा अधर्मास्तिकाय में स्थिति होती है, परन्तु वह गति तथा स्थिति का प्रेरक तत्त्व नहीं है। बल्कि उदासीन रूप से सहायक है। गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से प्रश्न किया- 'भगवन् ! धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय से जीव को क्या लाभ होता है ?' भगवान ने कहा - धर्मास्तिकाय द्वारा ही जीवों के गमन, आगमन, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग, काययोग की प्रवृत्ति होती है। इसके अतिरिक्त भी जितने चलभाव है, वे सब धर्मास्तिकाय द्वारा ही प्रवृत्त होते है। अधर्मास्तिकाय के द्वारा ही जीव खड़ा रहता है। बैठना, मौन करना, मन को एकाग्र करना, निस्पंद होना,करवट लेना आदि जितने भी स्थिर भाव है, वे सब अधर्मास्तिकाय के कारण है।'' 392 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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