Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 400
________________ नहीं है। इस प्रकार द्रव्यलोक एवं क्षेत्रलोक सान्त है, काललोक एवं भावलोक अनन्त है । 22 लोकालोक का पौर्वापर्य रोह अणगार ने भगवान से लोक- अलोक के पौर्वापर्य के विषय में प्रश्न किया- भगवन् ! प्रथम लोक और फिर अलोक बना या प्रथम अलोक और फिर लोक बना ? भगवान ने कहा रोह ! ये दोनों शाश्वत भाव है। इनमें पहले - पीछे का क्रम सम्भव नहीं है। जिस प्रकार अण्डे और मुर्गी में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है- अनानुपूर्वी है, उसी प्रकार लोक- अलोक में पौर्वापर्य का अभाव है । 23 लोक की नित्यानित्यता लोक नित्य है या अनित्य ! इस प्रश्न को बुद्ध ने अव्याकृत कहा है। 24 परन्तु जमालि के इसी प्रश्न का उत्तर भगवान महावीर ने इस प्रकार दिया - जमालि ! लोक शाश्वत (नित्य) भी है और अशाश्वत (अनित्य) भी। तीनों कालों में ऐसा एक भी समय नहीं मिल सकता जब लोक न हो। अतएव लोक शाश्वत अर्थात् नित्य है । लोक सदा एकरूप नहीं रहता। वह अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में बदलता रहता है, अतः लोक अशाश्वत है, अनित्य है, अध्रुव है | 25 लोक विषयक शंका को लेकर पार्श्वपत्य स्थविर भगवान महावीर के पास पहुँचे - भगवन् ! लोक में अनन्त रात्रि - दिवस उत्पन्न और विगत होते है अथवा परिमित रात - दिवस उत्पन्न और विगत होते है। भगवान ने दोनों विकल्पों को स्वीकार किया। जो अनन्त है, वह परिमित कैसे ? और जो परिमित है, वह अनन्त कैसे ? इस विरोध का परिहार भगवान ने सापेक्ष दृष्टि से किया । इस जगत में दो प्रकार के जीव है- साधारण शरीरी और प्रत्येक शरीरी । साधारण शरीरी की अवस्था में अनन्त जीव उत्पन्न होते और मरते है । प्रत्येक शरीरी की अवस्था में परिमित जीव उत्पन्न होते और मरते है । काल जीव का एक स्थिति लक्षण वाला पर्याय है । साधारण शरीरी जीवों की अपेक्षा से अनन्त रात-दिन उत्पन्न होते है और बीत जाते है । प्रत्येक शरीरी जीवों की अपेक्षा से परिमित रात-दिन उत्पन्न होते और बीत जाते है । इस प्रकार असंख्य प्रदेशी 394 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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