Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 408
________________ का कोई अंश हिंसक, अपराधी या क्रूर हो सकता है जबकि हम इस जगत् में इन्हें देखते है । यह कभी भी नहीं हो सकता कि देव, मनुष्य, पशु, पक्षी सभी में भिन्न आत्माओं की अपेक्षा एक ही आत्मतत्व की सत्ता है । सूत्रकृतांग में तत्कालीन प्रचलित इस वाद की भी चर्चा और समीक्षा है कि 'आत्मा अकर्ता है।' वह न स्वयं कुछ करती है और न किसी से कुछ करवाती है। अकारवादी जपा-स्फटिक न्यायानुसार ही उसका कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्वीकार करते है। स्फटिक मणि के पास लाल रंग का जपा - पुष्प रख देने पर जैसे स्फटिक - मणि श्वेत होने पर भी लाल प्रतीत होता है, उसी प्रकार आत्मा भुजिक्रिया से पृथक् होने पर भी बुद्धि के संसर्ग से भोक्ता प्रतीत होता है। इस सिद्धान्त के अनुगामी दर्शन की भाषा में सांख्य कहे जाते है । वे कर्तृत्व प्रकृति का मानते है। उनके अनुसार आत्मा कूटस्थ - नित्य, सर्वव्यापी है । जैनदर्शन की इस सम्बन्ध में मान्यता है कि यह कैसे सम्भव है कि कूटस्थ - नित्य होने पर भी आत्मा नाना योनियों में परिभ्रमण करें ? अगर वह किसी क्रिया का कर्ता ही नहीं है तो फिर किसके बाँधे हुए शुभ - अशुभ कर्मों को भोगता है? अगर आत्मा को कूटस्थ - नित्य माना जाय तो अगणित विसंगतियाँ उपस्थित जायेगी। जो बालक है, वह बालक ही रहेगा। रोगी है, वह रोगी और अज्ञानी है, वह अज्ञानी ही बना रहेगा । अर्थात् जो जिस स्थिति में है, वह उसी स्थिति में रहेगा। जब आत्मा अकर्त्ता है, तो मुक्ति आदि की प्राप्ति की क्रिया कौन करेगा ? तथा शुभाशुभ कर्मों का भोक्ता भी कैसे हो सकेगा ? यदि ऐसा होता है तो एक के पाप का फल दूसरे को मिलेगा, जिससे जगत् में अराजकता, अनैतिकता और हिंसा का ताण्डव नृत्य होने लगेगा । दर्शन की भाषा में यहाँ कृत-प्रणाश तथा अकृत-आगम का दोष आ पड़ेगा। फिर सांख्यमतवादी मानते है कि आत्मा मात्र भोक्ता है। तो क्या उनकी नजर में भोग करना क्रिया नहीं है । जब आत्मा भोग क्रिया कर सकता है, तो अन्य क्रियाएँ क्यों नहीं कर सकता? नि:सन्देश सांख्यों का यह मत मिथ्या आग्रह ही है। इस मिथ्या मान्यता के कारण ये अपनी आत्मा को 25 तत्त्वों का ज्ञाता होने का झूठा भ्रम पालकर एक अपेक्षा से स्वयं की आत्मा के साथ प्रवंचना करते रहते है। इस मिथ्या आग्रह से इस जन्म में भी अज्ञान में डूबकर वे आत्महित नहीं कर पाते और परलोक में भी यथार्थ बोध के अभाव में अज्ञान के गाढ़ अँधकार में ही डूबे रहते है । वादों की इस विचारणा के क्रम में यहाँ आत्मषष्ठवाद की भी चर्चा की 402 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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