Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 410
________________ बाद में वह क्यों विनष्ट होगा ? अतः पूर्व पदार्थ उत्तर पदार्थ में अपनी वासना स्थापित करके दूसरे ही क्षण विनष्ट हो जाता है। क्षणिकवाद के दूसरे रूप चातुर्धातुकवाद के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु, इन चार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। ये चारों धातु ही जगत् का धारण-पोषण करते है। ये चारों धातु जब एकाकार होकर भूतसंज्ञक रूपस्कन्ध बन जाते है, शरीर रूप में परिणत हो जाते है, तब इसकी जीव संज्ञा होती है । ये भूतसंज्ञक रूपस्कन्धमय होने के कारण पंच स्कन्धों की तरह क्षणिक है। इससे भिन्न किसी चैतन्य का अस्तित्व नहीं है । तात्पर्यार्थ यह है कि सांख्यमतवादी पंचभूतों से भिन्न आत्मा को मानते है, पंचमहाभूतवादी पंचभूतों से अभिन्न आत्मा का प्रतिपादन करते है, परन्तु ये क्षणिकवादी बौद्ध न तो पंचभूतों से भिन्न आत्मा को मानते है, न पंचभूतों से अभिन्न। क्षणिकवाद के अनुसार क्रिया करने के क्षण में ही जब आत्मा ( कर्त्ता) का समूल नाश हो जाता है, तब आत्मा का क्रियाफल के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। इस प्रकार एकान्त क्षणिकवाद मानने पर जो क्रिया करता है, और जो फल भोगता है, इन दोनों के बीच काफी अन्तर होने से कृतनाश तथा अकृत आगम ये दोनों दोष आयेंगे। जब आत्मा ही नहीं है, तब शुभाशुभ कर्मों का फल, बन्ध - मोक्ष, जन्म-मरण, स्वर्ग-नरक आदि की व्यवस्थाएँ भी गड़बड़ा जायेगी। जब मोक्ष का ही अभाव होगा, तब शास्त्रोपदेश तथा तपाचरण आदि सभी प्रवृत्तियाँ भी निरर्थक ही होगी । अतः आत्मा न एकान्त नित्य हो सकता है, न एकान्त अनित्य । जैन दर्शन में प्रत्येक पदार्थ की व्याख्या परिणामी नित्यवाद के आधार पर की जाती है। आत्मा द्रव्य की अपेक्षा नित्य है परन्तु पर्याय की अपेक्षा अनित्य । इसी क्रम में एक ऐसे वाद की समीक्षा की गयी है, जिसकी काफी मान्यताएँ जैन दर्शन के निकट है और वह है नियतिवाद । नियतिवाद के अनुसार प्रत्येक आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है, समस्त जीव पृथक्-पृथक् सुख-दु:ख भोगते है । जीव जो कुछ प्राप्त करता है, वह उसके पुरुषार्थ की देन नहीं है अपितु उसकी नियति में ऐसा ही होना है। जीव में ऐसी शक्ति नहीं कि वह इसमें कोई परिवर्तन ला सके। कोई नियतिवाद के विरोध में जाकर कितने ही प्रयत्न क्यों न करें, वह सब व्यर्थ है। नियतिवाद की यह मान्यता तो सत्यस्पर्शी है कि सभी जीवों का अलग 404 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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