Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 409
________________ गयी है। इसके अनुसार पाँच महाभूत तथा छठा तत्त्व आत्मा है। यह एक तरह से वेदवादी सांख्यों एवं वैशेषिकों के सिद्धान्तों की मिली-जुली मान्यता है। पंचमहाभूतवादी जहाँपंचमहाभूतों को सर्वथा अशाश्वतमानते है, वहीं आत्मषष्ठवादी छहों को सर्वथा नित्य मानते है। नित्य मानने का तर्क देते हुए कहते है कि अगर सर्वथा अनित्य मान ले तो बंध-मोक्ष की तथा पुण्य-पाप की व्याख्याएँ इसमें घटित ही नहीं होगी। प्रस्तुतवादी यह भी मानते है कि ऐसा भी नहीं है कि पहले ये अभाव रूप में थे, फिर कारण मिलने पर भाव रूप हो गये, जैसा कि सांख्यवादी मानते है। सूत्रकृतांग में इस मान्यता का खण्डन किया गया है। इसके अनुसार अगर किसी भी द्रव्य को सर्वथा शाश्वत मान लिया जाय तो आत्मा में कर्तृत्व परिणाम उत्पन्न नहीं होगा। और जब आत्मकर्तृत्व ही नहीं होगा तो परिणाम कैसे मिलेगा? आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने पर उसमें कथंचित् उत्पत्ति और विनाश का अभाव हो जायेगा, तब जन्मान्तर की स्थिति कैसे बनेगी ? अप्रच्युत, अनुत्पन्न तथा एक स्वभाव वाले आत्मा का संसार-भ्रमण के दौरान गति-परिवर्तन भी अशक्य होगा। अत: आत्मा को एकान्त नित्य नहीं कहा जा सकता। यहाँ बौद्ध दर्शन मान्य क्षणिकवाद के दो रूपों की समीक्षा करते हुए आत्मा की मान्यता का विवेचन तथा जैनदर्शन के अनुसार अनेक तर्कों के द्वारा उसका खण्डन भी मिलता है। क्षणभंगी पंचस्कन्धवाद की मान्यता है कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पाँच स्कन्धों के अतिरिक्त आत्मा नामक कोई स्कन्ध नहीं है। इनके अनुसार ये स्कन्ध क्षणिक है, जो दूसरे ही क्षण समूल नष्ट हो जाते है। स्कन्धों में क्षणिकत्व सिद्ध करने के लिए वे अनुमान प्रमाण का भी प्रयोग करते है। जैसे- स्कन्ध क्षणिक है, क्योंकि वे सत् है। जो-जो सत् होता है, वहवह क्षणिक होता है। जैसे- मेघमाला। ___ बौद्धों के अनुसार जो क्षणिक है, उनमें ही अर्थक्रियाकारित्व घटित हो सकता है। अर्थक्रियाकारित्व अर्थात् वस्तु की क्रिया, जैसे- आग की क्रिया है जलाना। नित्य पदार्थ में क्रम से या युगपत् अर्थक्रिया नहीं हो सकती। इसलिए सभी पदार्थों को अनित्य माना जाय तो उनकी क्षणिकता अनायास ही सिद्ध हो जाती है। पदार्थ अपने स्वभाव से उत्पत्ति के क्षण से ही अनित्य उत्पन्न होता है, क्योंकि अगर उत्पत्ति के क्षण से ही कोई विनष्ट नहीं होता है, तो फिर उपसंहार / 403 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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