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तत्वार्थराजवर्तिक भाग - 2, अ. 10, सूत्र - 2
दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः। कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुर ॥ ईशोपनिषद् : यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्वमैवाभूद् विजानतेः।
तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत: ?॥9॥ (ख) भगवद्गीता अ. 13/19 : तुल्यनिन्दास्तुतिमौनी सन्तुष्टो येन केन चित्॥ (क) शैव : दीक्षात: एव मोक्ष: (ख) सांख्य 'पंचविंशतितत्वज्ञो ....... मुच्यते नात्र संशय' (ग) वैशेषिक (प्रशस्तवाद भाष्य) 'नवानामात्मगुणानामुच्छेदो मोक्षः।' (घ) वेदान्तदर्शन - ऋते ज्ञानान्न: मुक्ति। (च) अमरकोश - अणिमा महिमा चेव गरिमा लघिमा तथा। प्राप्तिप्राकाम्यमीशित्वं, वशित्वं चाष्ट सिद्धय। ललित विस्तरा तत्वार्थ राजवार्तिक, अ. -10, सू. 6/7 सिद्धसेनकृत द्वात्रिंशतद्वात्रिंशिका।
11. लोकवाद सूत्रकृतांग सूत्र में उस युग में बहुचर्चित लोकवाद की भी मीमांसा की गयी है। इसमें उस युग में प्रचलित पौराणिक मान्यताओं का उल्लेख इस प्रकार
हुआ है
'इस जगत् में कुछ लोगों का ऐसा कथन है कि 'लोकवाद- पौराणिक कथा या सिद्धान्त को सुनना चाहिए। जो कि विपरीत प्रज्ञा से उत्पन्न है तथा अन्यों द्वारा उक्त अर्थ का अनुसरण करता है।'
'कुछ लोग ऐसा मानते है कि यह लोक अनन्त, नित्य और शाश्वत है, उसका कभी विनाश नहीं होता। किन्तु कुछ (व्यास) धीर पुरुषों का यह कथन है कि यह लोक नित्य होने पर भी सान्त, परिमित है।'
___'इस लोक में किन्हीं पौराणिकों का यह मन्तव्य है कि ईश्वर या अवतार अतीन्द्रिय पदार्थों का द्रष्टा होने से सीमातीत (अनन्त) पदार्थों को जानता अवश्य है किन्तु सर्वक्षेत्र-काल में पदार्थों का ज्ञाता, सर्वज्ञ नहीं है। वह परिमित पदार्थों का ज्ञाता पुरुष है, ऐसा धीर पुरुष का अतिदर्शन है।'
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 315
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