________________
और पाप जीव का संस्पर्श नहीं करते है और इस तरह कल्याण और पाप निष्फल
__ इस ग्रन्थ में चार्वाक दर्शन के सन्दर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इनमें कर्म सिद्धान्त का उत्थापन करने वाले चार्वाकों के पाँच प्रकारों का उल्लेख हुआ है जो अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मिलने वाले देहात्मवाद, इन्द्रियात्मवाद, मन:आत्मवाद आदि प्रकारों से भिन्न है। इसमें निम्न प्रकार से पाँच उक्कलों का उल्लेख है - ___1. दण्डोक्कल - ये विचारक दण्ड के दृष्टान्त द्वारा यह प्रतिपादित करते है कि जिस प्रकार दण्ड के आदि मध्य और अन्तिम भाग पृथक्-पृथक् होकर दण्ड संज्ञा को प्राप्त नहीं होते है, उसी प्रकार शरीर से भिन्न होकर जीव, जीव नहीं होता। अत: शरीर के नाश हो जाने पर भव/ जन्म परम्परा का भी नाश हो जाता है। उनके अनुसार सम्पूर्ण शरीर में होकर जीव जीवन को प्राप्त होता है। वस्तुत: शरीर और जीवन की अपृथक्ता ही इन विचारकों की मूलभूत दार्शनिक मान्यता थी। दण्डोक्कल देहात्मवादी थे।
2. रज्जूक्कल - रज्जूक्कलवादियों के अनुसार जिस प्रकार रज्जू तन्तुओं का समुदाय मात्र है, उसी प्रकार जीव भी पंचमहाभूतों का स्कन्ध मात्र है। उन स्कन्धों के विच्छिन्न होने पर भव-सन्तति का भी विच्छेद हो जाता है।' वस्तुत: ये विचारक पंचमहाभूतों के समूह को ही जगत का मूल तत्त्व मानते थे और जीव को स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। रज्जूक्कल स्कन्धवादी
थे।
. 3. स्तेनोक्कल - ऋषिभासित के अनुसार स्तेनोक्कल भौतिकवादी अन्य शास्त्रों के दृष्टान्तों को लेकर उनकी स्वपक्ष में उद्भावना करके यह कहते थे कि यह हमारा कथन है। इस प्रकार वे दूसरों के सिद्धान्तों का उच्छेद करते थे।
4. देशोक्कल - ऋषिभासित में, जो आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करके भी जीव को अकर्ता मानते थे, उन्हें देशोक्कल कहा गया है। आत्मा को अकर्ता मानने पर पूण्य-पाप, बन्धन-मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन पाती है. इसलिये इस प्रकार के विचारकों को भी आंशिक रूप से उच्छेदवादी ही कहा गया है। सम्भवत: ऋषिभासित ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जो आत्म अकर्तावादियों को उच्छेदवादी कहता है। वस्तुत: ये सांख्य और औपनिषदिक वेदान्त के ही पूर्व रूप थे।
____5. सव्वुक्कल - सर्वोत्कुल अभाव से ही सबकी उत्पत्ति बताते है। ऐसा 364 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org