Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 389
________________ उपनिषद् के ऋषि इस खोज में संलग्न रहे है और उसके आधार पर उन्होंने नाना प्रकार के मत प्रतिपादित किये है। देवकृत, ब्रह्मकृत, प्रजापतिकृत, ईश्वरकृत, स्वयंभूकृत तथा अंडे से उद्भूत जगत् की कल्पना उपनिषद् काल से ही प्रचलित है। इसका उल्लेख सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध होता है, जिसका विशद विवेचन 'जगत्कर्तृत्ववाद' में करते हुए हमने जैनदर्शन के अनुसार उसका निराकरण भी किया है। सृष्टिकर्ता विषयक विभिन्न वैदिक मतवादों का उल्लेख सूत्रकृतांग के अतिरिक्त प्रश्नव्याकरण नामक 10वें आगम सूत्र में भी उपलब्ध है। प्रश्नव्याकरण के अनुसार कुछ असद्भाववादियों का ऐसा कथन है कि यह लोक अंडे से उद्भूत है। इस लोक का निर्माण स्वयंभू ने किया है। यह समस्त जगत् विष्णुमय है । ' सृष्टि रचना के संबंध में भारतीयेतर दार्शनिकों की भी भिन्न-भिन्न धारणाएँ है। ग्रीक दार्शनिक थेलिज जल को जगत् का मूल स्रोत मानते है । ' जबकि एनेक्जीमेनस के अनुसार वायु समस्त वस्तुओं का आदि और अन्त है।' एनेक्जीमेण्डर के अनुसार थिओस नामक उपादान रूप भौतिक पदार्थ, जो पूरे आकाश में व्याप्त था, सृष्टि का आदि और अन्त है । यह पृथ्वी, पानी आदि से भिन्न है । ' सृष्टि रचना के सन्दर्भ में दर्शन की धाराओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - अद्वैतवाद तथा द्वैतवाद । अद्वैतवाद - अद्वैतवादी दार्शनिक चेतन या अचेतन का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार जीव और अजीव में से किसी एक तत्त्व का वास्तविक अस्तित्व है। इस विषय में अद्वैतवाद की मुख्य तीन शाखाएँ है - 1. जडाद्वैतवाद, 2. चैतन्याद्वैतवाद और 3. जडचैतन्याद्वैतवाद । जाद्वैतवाद - इसके अनुसार जीव की उत्पत्ति अजीव से हुई है। अनात्मवादी चार्वाक और क्रमविकासवादी दार्शनिक इसी मत के समर्थक है । चैतन्याद्वैतवाद - इसके अनुसार सृष्टि का आदि कारण ब्रह्म है। वैदिक ऋषि कहते है- अप्रत्यक्ष ब्रह्म में ही सद्भाव प्रतिष्ठित है। इसी सत् में सृष्टि के उपादानभूत पृथ्वी आदि निहित है, इसी से उत्पन्न होते है ।' ब्रह्म तीनों लोकों सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 383 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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