Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 385
________________ वाटिका में जाकर अपनी मुद्रिका एवं उत्तरीय वस्त्र उतारकर धर्मध्यान में संलग्न हो गया। उसी समय उसकी श्रद्धा को विचलित करने के लिये एक देव प्रकट हुआ। वह मुद्रिका तथा उत्तरीय को आकाश में स्थित कर कहने लगा- मंखलिपुत्र गोशालक की धर्म विधि अच्छी है । उसमें उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम आदि का कोई महत्त्व नहीं है । जो कुछ होने वाला है, वह सब नियत है, निश्चित है। भगवान महावीर के सिद्धान्त इसलिये उत्तम नहीं है, क्योंकि वहाँ उत्थान, बल, वीर्य आदि सभी का स्वीकार है । गोशालक के मत में प्रयत्न से जो कुछ किया जाता है, वह व्यर्थ है । जब वीर्य नहीं, तो बल नहीं, कर्म नहीं । कर्म के बिना सुख - दु:ख कैसा ? जो भी होता है, भवितव्यता से ही होता है । यह सुनकर कुण्डकौलिक ने कहा - हे देव ! तुमने जो दिव्य ऋद्धि, समृद्धि, सुख-साधन प्राप्त किया है, वह सब प्रयत्न से प्राप्त हुआ है, या अप्रयत्न से । यदि देवभव के योग्य पुरुषार्थ किये बिना ही कोई देव बन सकता है, तो सभी जीव देव क्यों नहीं बन गये ? यदि तुम कहो कि दिव्य ऋद्धि प्रयत्न से प्राप्त हुई है, तो फिर गोशालक के सिद्धान्त सत्य कैसे हो सकते हैं, जिसमें प्रयत्न और पुरुषार्थ का स्वीकार नहीं है ? कुण्डकौलिक के युक्तिबद्ध एवं तर्कपूर्ण वचन सुनकर देव निरूत्तर हो गया तथा अँगूठी एवं उत्तरीय वस्त्र रखकर अपने स्थान पर चला गया । 3 प्रस्तुत अंग के सातवें अध्याय में गोशालक मतानुयायी सकडाल पुत्र का भी वर्णन उपलब्ध होता है । पोलासपुर नामक नगर में सकडाल पुत्र नामक - कुम्भकार अपनी पत्नी अग्निमित्रा के साथ रहता था । वह अपने धार्मिक सिद्धान्तों के प्रति आस्थावान् था। एक दिन वह अशोक वाटिका में जाकर धर्मोपसना कर रहा था, तभी वहाँ एक देव आया और आकाश से ही बोलने लगा। कल यहाँ त्रिलोक पूज्य अर्हत्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, जिन आयेंगे। तुम उनकी पर्युपासना करना। सकडाल पुत्र ने सोचा - मेरे धर्माचार्य गोशालक यहाँ आयेंगे। मैं उन्हें प्रातिहारिक, पीठ, फलक आदि का निमन्त्रण दूँगा । दूसरे दिन भगवान महावीर के आने पर सद्दाल पुत्र धर्मदेशना सुनने गया । भगवान ने उसे सुलभ बोधि जानकर प्रतिबोध दिया। कल वाटिका में देव ने जिनके आने की सूचना दी थी, उसका अभिप्राय गोशालक से नहीं था । वह परमात्मा के अतीन्द्रिय ज्ञान से प्रभावित हुआ। विधिवत् वन्दन कर अपने कर्मशाला सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 379 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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