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होकर आचार पालन तथा अनाचार त्याग में कुशल व निपुण बने। वह अनाचार रूप कुमार्ग को छोड़कर आचार रूप सुमार्ग का पथिक बने, जिससे अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर सके ।
आचारश्रुत अध्ययन 33 गाथाओं में ग्रथित है। प्रारम्भिक गाथाओं में एकान्तवाद को मिथ्याकथन एवं अनाचार के रूप में उल्लिखित किया गया है। द्वितीय गाथा में जगत् की नित्यता तथा अनित्यता के विषय में उहापोह है। कुछ दार्शनिक शाश्वतवादी है, कुछ अशाश्वतवादी। सांख्यदर्शन के अनुसार द्रव्य अनादि अनन्त है, जबकि बौद्ध दर्शन के अनुसार द्रव्य सादि-सांत अर्थात् उत्पन्न होता है और नष्ट हो जाता है। ये दोनों ही दृष्टियाँ - ऐकान्तिक शाश्वतवाद तथा ऐकान्तिक अशाश्वतवाद-दोषपूर्ण है । यहाँ तीसरी अनेकान्त दृष्टि को सम्यक् बताया गया है । वह है- शाश्वत अशाश्वतवाद ।
दार्शनिक फलितार्थ यह है कि एकान्तवाद मिथ्या है, अव्यवहार्य है । अनेकान्तवाद सम्यग् है, व्यवहार्य है । जो दार्शनिक लोक को एकान्ततः शाश्वत या अशाश्वत, जगत्कर्त्ता को एकान्ततः नित्य या अनित्य, प्राणी को एकान्ततः कर्मबद्ध या कर्ममुक्त, एकान्ततः सदृश या विसदृश मानते है, वे मिध्या प्रवाद " करते है। आगे की गाथाओं में सूत्रकार ने 17 प्रतिपक्षी युगलों का कथन किया है। इनका संज्ञान सम्यक्त्व की पृष्ठभूमि बनता है, इसलिये शास्त्रकार ने इनके अस्तित्व को स्वीकार करने का परामर्श दिया है।
इन युगलों से उस समय की दार्शनिक मान्यताओं का भी बोध होता है। कुछ दार्शनिक जीव, धर्म, बंध, पुण्य, देवता, स्वर्ग आदि को स्वीकारते थे और कुछ उनको नकारते थे। जैन दर्शन इन सबके अस्तित्व को स्वीकार करता है। ये युगल इस प्रकार है - लोक- अलोक, जीव- अजीव, धर्म-अधर्म, बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप, आश्रव-संवर, वेदना-निर्जरा, क्रिया-अक्रिया, क्रोध-मान, मायालोभ, प्रेम-द्वेष, चातुर्गतिक संसार- अचातुर्गतिक संसार, देव-देवी, सिद्धि - असिद्धि, सिद्धिगति-असिद्धिगति, साधु-असाधु, कल्याण- पाप ।
चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने इन सबको स्याद्वाद के आधार पर सिद्ध करने का सफल प्रयास किया है । "
इस अध्ययन में व्यवहारिक अनाचारों का कथन न कर, सैद्धान्तिक अनाचारों अर्थात् एकान्तवाद सेवन न करने का परामर्श दिया गया है। यहाँ दर्शन - दृष्टि और वचन का अनाचार विवक्षित है।
200 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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