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सुख-दु:ख का अनुभव अवश्यमेव होता है अत: आत्मा निश्चय ही है, ऐसा सिद्ध होता है।
यदि यह कहे कि क्षणमात्र स्थित रहने वाले पूर्व-पदार्थ से उत्तर-पदार्थ की उत्पत्ति होती है. इसलिये क्षणिक पदार्थों में परस्पर कार्य-कारण भाव हो सकता है, तो यह कथन भी असंगत है। क्योंकि यहाँ प्रश्न होगा कि पहला पदार्थ स्वयं नष्ट होकर उत्तर पदार्थ को उत्पन्न करता है अथवा नष्ट न होकर उत्पन्न करता है ? यदि नष्ट होकर उत्पन्न करता है तो यह कैसे सम्भव होगा ? जो स्वयं नष्ट हो गया हो, वह दूसरे को उत्पन्न करने में असमर्थ है। यदि नष्ट न होकर उत्पन्न करता है, तो यहाँ उत्तर-पदार्थ के काल में पूर्व पदार्थ की विद्यमानता की आपत्ति होगी। ऐसा कथन क्षणभंगवाद की मान्यता के विरूद्ध होगा।
इसका समाधान अगर यो करे कि जैसे तराजु का एक पलड़ा, स्वयं नीचा होता हुआ दूसरे पलड़े को ऊपर उठाता है, उसी तरह पहला पदार्थ स्वयं नष्ट होता हुआ उत्तर पदार्थ को उत्पन्न करता है, तो यह कथन भी समीचीन नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर दो पदार्थों की एक काल में स्थिति हो जायेगी जो कि क्षणिकवाद सिद्धान्त के प्रतिकूल है। ऐसी दशा में उत्पत्ति और विनाश एक साथ मानने पर उनके धर्मी-रूप पूर्व और उत्तर पदार्थ की भी एक काल में स्थिति सिद्ध होगी। अगर उत्पत्ति और विनाश को पदार्थों का धर्म न माने तो उत्पत्ति और विनाश कोई वस्तु ही सिद्ध न होंगे।
‘पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके नाश का कारण है' यह कथन भी दोषदुष्ट है। यदि पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके नाश का कारण है तो किसी भी पदार्थ को उत्पन्न ही नहीं होना चाहिये क्योंकि उनके नाश का कारण उनके निकट ही विद्यमान है।
क्षणिकवादी पदार्थ को क्षणिक मानकर उस पदार्थ का सर्वथा अभाव मानते है, वह भी ठीक नहीं है। क्षणिक सत्ता मानने पर आत्मा भी अभावरूप हो जायेगी तो इहलोक-परलोक संबंधी सारी व्यवस्थाएँ ही चौपट हो जायेगी।
पदार्थों की व्यवस्था के लिये चार प्रकार के अभाव माने गये है - प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव, अन्योन्याभाव।
1.प्रागभाव - वस्तु की उत्पत्ति से पूर्व रहने वाला अभाव। 2.प्रध्वंसाभाव - वस्तु के नष्ट हो जाने पर होने वाला अभाव।
3.अत्यन्ताभाव - वस्तु का अत्यिन्तक अभाव । 266 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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